धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ऋषि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में ईश्वर के निराकार व साकार स्वरुप पर प्रस्तुत विचार

ओ३म्

 

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के सप्तम् समुल्लास में ईश्वर के निराकार व साकार स्वरुप की चर्चा की है। एतद् विषयक प्रकरण यथावत् रूप में प्रस्तुत हैः

 

प्रश्नईश्वर साकार है या निराकार?

उत्तरनिराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृषा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इस से यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आंख आदि अवयवों का बनानेहारा दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उस को संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये। जो कोई यहां ऐसा कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था। इसलिए परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता किन्तु निराकार होने से सब जगत् को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है।’’

 

ऋषि दयानन्द ने उपर्युक्त पंक्तियों ने ईश्वर के निराकार स्वरुप के होने में जो तर्क युक्तियां दी हैं, वह प्रबल एवं अखण्डनीय हैं। इससे ईश्वर के निराकार होने में सन्देह का कोई स्थान नहीं रहता। हम समझते हैं कि पाठकों को ऋषि के उपर्युक्त विचारों को स्मरण कर लेना चाहिये जिससे वह कभी भ्रान्ति में फंस सकें और ईश्वर को साकार मानने वालों की भ्रान्तियां भी दूर कर सकें।

 

मनमोहन कुमार आर्य