गीत : वो इतवार नहीं आता
सबकुछ जी लिया हमने पर वो प्यार नहीं आता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
सुबह सुबह रंगोली से दिन की शुरुआत होती थी
पूरा दिन आने वाली उस इक फिल्म की बात होती थी
पूरा परिवार साथ बैठे वो मजा अब यार नहीं आता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
ढेर सा स्नैह लिये माँ कुछ अच्छा बनाकर खिलाती थीं
इक दिन पहले ही हमको लालच देकर सुलाती थी
अब इतवार के खाने में वो लालच का स्वाद नहीं आता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
भाई बहन हम आपस में लङाई झगङा भी करते थे
पर माँ पापा की डाँट से हम मन ही मन डरते थे
अब उस डाट में न जाने क्यूं एतराज नजर नहीं आता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
उस दिन हम सब मिलकर के धमा चौकङी करते थे
भले टूटता हाथ पांव पर घर मेँ ही झगङते थे
अब आधुनिकता की दौङ में वो प्यार नजर नहीं आता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
बङो की व्यस्तता देखकर उनकी मदद भी करते थे
इक इज्जत और डर के साथ उनकी आंख से डरते थे
अब वो इज्जत वो डर न जाने क्यूं इधर नहीं आता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
रात को लाईट जाती तो भी साथ में बैठकर खाते थे
अपनी अपनी शैतानियों और बातोँ का अनुभव बताते थे
लेकिन मोबाईल के इस दौर में अब साथ में खाना नहीं भाता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता
तरस जाते माँ की लोरी दादी की कहानियों को
अब निकलती है रातें जीवन में लिये परेशानियों को
नाखुश होकर भी इंसान इस जीवन से निजात नहीं पाता
मस्ती से गुजरता था जो वो इतवार नहीं आता