कविता : मेरे बंधन
प्यार प्यार से बाँधा मुझको
पैर पैर से बांधा मुझको
हो सकते थे ये भी सबल
नजाकत से नापा मुझको
यूँ बांधा की चल ना सकूँ
चुगली करें जो चल भी दूँ
डोरी बाँधी रिश्तों की
बेडी पहना दी गहनों की
मुझको भाये मेरे बंधन
कैद से अनजान रहा मन
सदियाँ बीती इस बंधन में
नील पड गये अंतर्मन में
खोल दो बंधन पग ये चले
अम्बर को कर लें कदमों तले
पीड़ा से मुक्ति जो मिले
श्रृष्टि सदियों तक ये चले
— सरिता पन्थी, नेपाल