कविता – कुछ बेहतर
क्या चाहते हो जिंदिगी से
सब कुछ पाना बेहतर
क्यों रोते हो इन हालातों पर
जो तुम्हारे बस में नहीं
दौड़ रहे हो एक अंधी दौड़ मेँ
सबसे आगे आने की हौड़ में
सोचा है कभी कब मुस्कराये थे
शायद कल सेल्फ़ी लेते समय
याद आया कितनी झूठी मुस्कान थी वो
कुछ देर की
फिर वाही भागम भाग
सुबह से लेकर शाम तक
कब भीगे थे
तुम आखरी बार बारिश की फुहार में
कब पौछा माथे का पसीना रुमाल से
बाहर सर्दी होती है
तुम हीटर लगा लेते हो
कहाँ मजा लिया तुमने प्रकृति की बहार का
याद करो कब तुमने रेवड़ी ,मूंगफली खाई थी बैठ कर सबके साथ में
तुम तो हाई टेक हो गए हो ना
रिश्ते बना लिए व्हाट्सप में
रोते हो आज भी अकेले में
बेहतर करना चाहते हो
तो एक दिन अपने लिए जियो
आज गहरी साँस लो
उगता हुआ सूरज देखो
अपने आंगन में लगा वो तुलसी का पौधा देखो
अपने बच्चों की आँखों में खोया प्यार देखो
कर दो स्वयं का समर्पण स्वयं से
मुक्त हो जाओ इन झूठी लालसाओ से…
— डॉ विनीता मेहता