चित्र और जिंदगी
बलिया सियालदह एक्सप्रेस के
झरोखे से जब झांकता हूँ
दूर तक वसुधा
किसी बड़े पेन्टर के
कैनवास सी प्रतीत होती है
दूर तक फैले
पके गेहूँ के खेत
जैसै कलाकार ने इस्तेमाल किया हो
खालिस सुनहरा रंग
धरती सचमुच उगल रही हो सोना
खेतों के मुंडेर पर लगे
तार खजूर वृक्ष जैसे
ईश्वर ने उगाई हो
खुद अपने हथेलियों पर हरियाली
चटख हरा रंग
क्या खुब बिखेरा है
अपनी पतली पेंसिलनुमा ब्रश से
एक झोपड़ी भी दिखती है
सड़कंडे की बनी
और उसके आस पास
ठहरे हुए कुछ लोग
दूर से आती दिखती है
मटमैली साड़ी मे कोई युवती
सर पर दिखता है
काटे गए गेहूँ का बोझा
कुछ चिड़ियाँ उड़ती हुई
और चरती बकरी का हूजुम
जुगाली करते मवेशी
हाँ पीछे पहाड़ भी है
जहाँ से चित्र में निकलता है सूरज
पर अभी डूब रहा है
पर जो चित्र से इतर
अब तक जो नहीं दिखता
या फिर महरूम है जिंदगी जिससे
झोपड़े तक जाने वाली
समतल सुंदर सड़क
सड़क के दोनों तरफ
सिंदूरी गुलमोहर के पुष्पों से पटा भूखण्ड
और चित्र के इतर जो दिख रहा है
फसल काटते हाथों के साथ
चेहरे पर उभरे मुस्कुराहट के बदले
नमकीन पसीना से सना चेहरा
जिंदगी से चलते जंग से
सिलवटो में बदला पेशानी
और अतड़ियों से चिपका पेट
अब भी बदरंग जिंदगी को
तय करना है एक बड़ा फासला
चित्र के रंग तक पहुँचने के लिए
अमित कु अम्बष्ट “आमिली ”