उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –१९

थोड़ी ही देर में नारायण नहाधोकर बाल्टी में पानी लिए वापस आ गया था । कमरे में आकर नारायण ने एक नजर बाबू पर डाली जो शायद बैठे बैठे ही सो गया था । धनिया को सबके लिए कुछ भोजन बनाने को कहकर नारायण कपडे पहन बाहर की तरफ नीकल गया ।

धनिया उठकर सामने ही रखे हुए डिब्बों की तरफ बढ़ गयी । कमरे में मौजूद चीजों को देखने के बाद धनिया भोजन बनाने की तैयारी कर उसमें जूट गयी । बाबू वैसे ही पड़ा सोता रहा ।

नारायण थोड़ी ही देर में वापस आ गया । धनिया भोजन बनाने में व्यस्त थी । बिना कुछ कहे नारायण बाबू के बगल में ही थोड़ी खाली जगह देखकर वहीँ लेट गया । थोड़ी ही देर में कमरे में नारायण के खर्राटे गूंजने लगे ।

धनिया ने शीघ्र ही भोजन बनाकर अपने बापू की तरफ देखा । वह अभी भी गहरी नींद में ही लग रहा था । नारायण के खर्राटे बदस्तूर जारी थे । धनिया भी अपने आपको नींद के चंगुल से नहीं बचा सकी और वहीँ रसोई के पास ही जगह बनाकर सो गयी ।

बाबू और धनिया पिछली रात सो नहीं सके थे और नारायण रात में चौकीदारी की ड्यूटी कर के आया था सो तीनों गहरी नींद में सोये हुए थे ।

रोज की तरह दोपहर लगभग एक बजे श्याम भोजन करने के लिए घर पर पहुंचा । दरवाजे को हाथ लगाते ही दरवाजा खुल गया । उस छोटे से कमरे में ही तीनों को सोते देख उसे हंसी आ गयी । हंसी इसलिए क्योंकि तीनों ही बिना बिस्तर के ऐसे ही सो गए थे । बाबू तो बैठे बैठे सोते हुए नींद में  सरक कर बगल में ही स्थित आटे के डब्बे पर पसर कर शरीर पर आटा लगा बैठा था । दरअसल आटे का डिब्बा खुलकर आटा बीखर गया था और बाबू उसी बीखरे हुए आटे में ही सोया हुआ था । यही दृश्य देखकर श्याम मुस्कुरा उठा था ।

उसके कमरे में प्रवेश करते ही आहट से धनिया की नींद खुल गयी । उसने तुरंत ही बाबू को जगा दिया । और फिर नारायण के उठने के बाद सबने साथ ही बैठकर भोजन किया ।

भोजन के पश्चात् श्याम फिर से रिक्शा लेकर चला गया । सबके भोजन कर लेने के बाद धनिया ने भोजन किया और जुठे बर्तन मांजने बैठ गयी ।

अभी धनिया बर्तन मांज कर उसे कमरे में एक कोने में रख ही रही थी कि दरवाजे पर से किसीकी आवाज आई ” नारायण काका ! ”

नारायण ने वहीँ कमरे में बैठे बैठे ही जवाब दिया ” हाँ सरजू ! आ जाओ । दरवाजा खुला ही है । ”

लगभग तीस वर्षीय एक युवक ने कमरे में प्रवेश करते हुए बाबू और नारायण का अभिवादन किया ।

नारायण ने उसे देखते ही ” अरे आओ सरजू आओ ! बैठो ” कहते हुए नारायण ने एक ख़ाली बोरी बीछा दी थी । सरजू भी उस बीछी हुयी ख़ाली बोरी पर बैठ गया ।

नारायण ने सरजू का परिचय बाबू से कराया । थोड़ी देर की औपचारिक बातचीत के बाद सरजू ने धनिया को देखते ही शादी के लिए हामी भर दी । लेकिन उसकी शर्त थी की वह शादी अपने गाँव में अपने लोगों के बीच करेगा और धनिया को भी वहीँ गाँव में अपने माता पिता के पास रखेगा । बाबू ने भी तुरंत हामी भर दी लेकिन धनिया ने भी अपनी एक शर्त स्पष्ट कर दी । उसने कहा चूँकि उसके बापू हमेशा बीमार रहते हैं उसके बापू भी उसके साथ ही गाँव में रहेंगे ताकि वह अपने बीमार बाप की देखभाल कर सके । सरजू ने थोड़ी ना नुकुर के बाद धनिया की यह बात मान ली ।

शाम चार बजे ही एक गाड़ी विलासपुर यानी सरजू के गाँव की तरफ जाती थी ।

बाबू को डर था कहीं अमर धनिया को ढूंढते हुए यहाँ तक न आ पहुंचे । इसी संभावना के चलते वह शीघ्र ही वहाँ से निकल जाना चाहता था । उसने तुरंत ही सरजू की बात से रजामंदी दिखाई । बाबू की सहमति मिलते ही सरजू तुरंत चले गया और आधे घंटे में ही गाँव जाने के लिए तैयार होकर वापस आ गया ।

थोड़ी देर बाद सरजू बाबू और धनिया को अपने साथ लिए अपने गाँव की तरफ चल दिया ।

देर रात तीनों विलासपुर पहुँच गए थे । शिकारपुर के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं था । लेकिन सरजू ने वहीँ चौराहे के नजदीक रहनेवाले एक परिचित जीप वाले को शिकारपुर तक पहुँचाने के लिए मना लिया था । तीनों शिकार पुर सरजू के गाँव पहुंचे तब तक रात के लगभग बारह बज गए थे ।

सरजू ने अपने पिताजी पंचम राजभर को संक्षेप में सब बताया और धनिया का ‘ तुम्हारी बहू है ‘ कह कर सबसे परिचय कराया । बाबू को घर के बाहर ही एक खटिया डाल कर सोने के लिए कह कर सरजू की माँ ने धनिया को अपने संग सुला लिया । सुबह शादी की तैयारी करनी है तय कर सभी सो गए थे ।

सूर्योदय के साथ ही सभी तैयारियों में जुट गए थे । पड़ोसियों को बुलाकर सभी ख़ुशी ख़ुशी शादी की रस्में पूरी करने में लग गए थे । बस्ती की सभी औरतें धनिया को देखकर सरजू की बड़ी तारीफ़ कर रही थीं । इतनी सुन्दर दुल्हन लाने के लिए सभी उसकी भूरी भूरी प्रशंसा कर रही थीं वहीँ सभी धनिया के बारे में जानने को भी उत्सुक थीं । ऐसे ही हंसी ख़ुशी के माहौल में हल्दी की रस्म निभाई जा रही थी जब अमर वहाँ पहुँच गया था ।

बाबू ने अपनी बातें ख़तम कर अमर की तरफ देखा । उसकी आँखों में आंसू तैर रहे थे । बाबू की बात ख़तम होते ही अमर ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और भर्राए गले से बोला ” काका ! मेरी वजह से आपको और धनिया को इतना कुछ झेलना पड़ा । मेरी वजह से ही बाबूजी को भी यह सब करना पड़ा था । इन सारी मुसीबतों की वजह मैं ही हूँ । मेरी वजह से ही आज धनिया की यह हालत है …………। ”

और न जाने अमर कब तक खुद को दोष देता रहता कि बाबू उसके दोनों हाथ थाम कर उसे सांत्वना देते हुए बोला ” छोटे मालीक ! ये आप क्या कह रहे हैं ? क्यों बेवजह खुद को दोष दे रहे हैं ? इस पूरी घटना क्रम में आपका तो कोई दोष नहीं है और मैं तो बड़े मालीक को भी दोषी नहीं मानता । उनकी जगह कोई भी होता तो वह भी यही करता । ”

अभी अमर कुछ जवाब देता कि तभी एक अस्पताल कर्मी शीघ्रता से चलता हुआ उनके पास आया और बोला ” तुम लोग यहाँ बैठे हो और मैं कब से तुम लोगों को ढूंढ रहा हूँ । अमर कौन है ? ”

अमर ने शीघ्रता से आगे बढ़ते हुए बताया ” क्या बात है ? सब ठीक तो है ? मैं ही अमर हूँ । ”

” चलो ! तुम्हें बड़े साहब ने बुलाया है । ” कहकर वह चला गया ।

अमर सहित सबकी चिंता बढ़ गयी थी । ‘ आखिर बड़े साहब यानी डॉक्टर माथुर ने अचानक क्यों बुलाया था ? क्या बात होगी । सब ठीक तो है ? हाँ ! भगवान करें सब ठीक ही हो ।’
ऐसेही विचार करते अमर डॉक्टर माथुर के कक्ष की ओर बढ़ गया ।

जबकि बाबू और सरजू बाहर बरामदे में ही रुक गए थे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।