नई चेतना भाग –२९
सुबह तड़के ही अमर की नींद खुल गयी थी। हालाँकि गुलाबी ठण्ड की वजह से बीच बीच में वैसे भी उसकी नींद उचटती रही थी। फिर भी काफी हद तक उसकी नींद पूरी हो गयी थी। अस्पताल से निकल कर रात हो जाने की वजह से उसने विलासपुर छोड़ना उचित नहीं समझा था। सुबह उठकर आगे के बारे में सोचा जायेगा। यही तय कर भोजन करके वहीँ बस स्टैंड पर ही सो गया था। नींद खुल जाने के बाद अमर वहीँ बस स्टैंड में ही दैनिक दिनचर्या से निबट कर हाथ मुंह धोकर चाय वाले की दुकान पर जा पहुंचा। चाय पीते पीते वह अपनी आगे की योजना पर भी विचार कर रहा था। बीरपुर तो वह किसी भी हाल में धनिया के बिना नहीं जायेगा। तो फिर कहाँ जाए? क्या करे? वह कुछ सोच नहीं पा रहा था।
अचानक उसे चौधरी रामलालजी की याद आ गयी। एक अनजान शहरी की उन्होंने किस आत्मीयता से मदद की थी। उंच नीच का भेद परे रखकर उन्होंने धनिया को तत्काल चिकित्सा उपलब्ध कराने के लिए स्वयं इतनी मेहनत की थी। अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उसकी मदद की। आज शायद उन्हीं की वजह से धनिया की जान बच पायी है और वह भी सही सलामत है। उसे उनसे मिलकर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता अवश्य प्रकट करनी चाहिए। उनसे मिलकर उन्हें धन्यवाद कहना चाहिए। ऐसा न करने पर कहीं वह बुरा न मान जायें। इंसानियत के प्रति उनका वही जज्बा और हौसला बनाये रखने के लिए यह अति आवश्यक है कि उनसे मिलकर उनसे अपनी भावनाएं व्यक्त की जाए ।
अब उसने तय कर लिया था कि पहले वह शिकारपुर जाकर चौधरी रामलाल से मिलेगा और फिर आगे के बारे में सोचेगा।
अमर तुरंत ही बस अड्डे में पहुंचकर शिकारपुर जानेवाली बस के बारे में पूछताछ करने लगा। अभी अभी एक बस शिकारपुर के लिए निकली थी। अब दूसरी बस दो घंटे के बाद थी। अमर अभी भी कमजोरी महसूस कर ही रहा था सो जाकर बस के मुसाफिरखाने में ही बैठ गया और बस की प्रतीक्षा करने लगा।
इधर अस्पताल में लालाजी की आवाज सुनकर बाबू के बाहर की तरफ बढ़ते कदम जहाँ के तहां रुक गए। घूमकर उसने प्रश्नवाचक नज़रों से लालाजी की तरफ देखा। उनकी ओर देखते हुए भी बाबू के दोनों हाथ जुड़े हुए थे। धनिया भी कातर निगाहों से लालाजी की तरफ ही देख रही थी और फिर अगले ही पल उसकी निगाहें झुक गयी। लालाजी अपने उसी गंभीर स्वर में बोले- “बाबू ! अब हम तुम्हें अपने उस वचन से आजाद करते हैं जो तुमने हमें बीरपुर में दिया था । सो तुम्हें कोई चिंता करने की कोई जरुरत ही नहीं है और न ही कहीं जाने की। तुम हमारे साथ बीरपुर चल रहे हो।”
“लेकिन मालिक ! मैंने तो धनिया की शादी सरजू से तय कर दी है। अब क्या फरक पड़ेगा आपके वचन से आजाद होने का?” बाबू ने आशंका जाहिर की थी।
“बाबू ! शादी तय ही तो की थी। शादी कर तो नहीं दी थी? फिर क्यों इतना परेशान हो रहा है?” लालाजी ने उसे एक तरह से झिड़क ही दिया था। बाबू का प्रत्युत्तर उन्हें नागवार गुजरा था। अगले ही पल उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए बदले हुए लहजे में कहा “बाबू ! होनी को कौन टाल सकता है ? धनिया और सरजू की शादी होनी होती कल ही हो गयी होती । आखिर कुदरत ने अमर को वहां क्यों पहुंचाया ? धनिया और अमर की ऐसी हालत क्यों हुई ? कुदरत के हर क्रियाकलाप में एक गहरा राज छिपा होता है बाबू लेकिन हम नासमझ उसके ईशारे को समझ नहीं पाते । फिर भी मैं तुम्हें कोई आदेश नहीं दे रहा हूँ। मैं तो बस यही चाह रहा हूँ कि जब तक अमर की माँ पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती तुम दोनों यहीं रुक जाते । अमर की माँ को शायद धनिया की जरुरत पड़ जाये। आगे तुम्हारी मर्जी।”
बाबू ने लगभग हथियार डालने वाले अंदाज में सर हिलाते हुए कहा “ठीक है मालिक ! हम मालकिन के ठीक होने तक यहीं रुक जाते हैं।” और वहीँ बरामदे में जाकर बैठ गया। धनिया धीरे से चलती हुयी गहन चिकित्सा कक्ष में दाखिल हो गयी।
लालाजी को बाबू के रुकने से हार्दिक प्रसन्नता हुयी थी जिसे उनके चेहरे पर आसानी से देखा जा सकता था। बाबू के वहां रुकने से उनकी चिंता थोड़ी कम हुयी और वह हाथ मुंह धोने के लिए अस्पताल के बाथरूम में चले गए। वापस आकर उन्होंने रमेश को आवाज दी और बाबू को साथ लेकर अस्पताल की कैंटीन में घुस गए। दोनों को चाय नाश्ता कराकर लालाजी उनके साथ बाहर बरामदे में आकर बैठ गए।
यहाँ बैठने के बाद एक बार फिर चर्चा अमर की तरफ घूम गयी। लालाजी ने बाबू से पूछा “हमारे आने से कितनी देर पहले अमर यहाँ से गया था? ”
“लगभग दो घंटे पहले गए थे मालिक ! “बाबू ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया । रमेश ने अपने दिमागी घोड़े दौडाए- “मालिक ! अगर हम लोग तुरंत उन्हें ढूंढने निकले होते तो शायद नजदीक ही कहीं बैठे हुए मिल गए होते। अब तो इतने बड़े शहर में उन्हें खोजना बहुत ही मुश्किल काम है।”
लालाजी ने सहमती दर्शाते हुए कहा “शायद तुम ठीक कह रहे हो रमेश ! लेकिन हम अमर की माँ को इस हाल में छोड़कर कैसे जा सकते थे ? ” बाबू ने हामी भरी “आप बिलकुल सही कह रहे हैं मालिक ! शायद विधि के विधान में यही लिखा है नहीं तो मैं उन्हें जाने के लिए क्यों कहता? और क्यों मालकिन की तबियत इतनी ख़राब होती? सारा कसूर मेरा ही है मालिक ! मुझे माफ़ कर दो।” कहते कहते बाबू भावुक हो उठा था। अपराध बोध उसके चेहरे से और उसकी बातों से स्पष्ट दिख रहा था। लेकिन लालाजी को पता था इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। उसने उनके ही आदेश का पालन करने के जूनून में अमर को वहाँ से जाने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन अब क्या हो सकता था ? नियति ने एक बार फिर अपनी चाल चल दी थी और उसकी चाल के आगे सभी अपने आपको बेबस मजबूर पा रहे थे।
ऐसे ही बड़ी देर तक तीनों वहीँ बैठे तर्क वितर्क करते रहे। बाबु और रमेश ज्यादातर लालाजी की हामी भरते ही नजर आये।
इधर बस में सवार अमर शिकारपुर की तरफ बढ़ रहा था। चौधरी रामलालजी के घर की तरफ बढ़ते हुए उसका मन कृतज्ञता से भरा हुआ था। बस स्टैंड पर ही उसे रामलालजी के दो छोटे पोतों की याद आ गयी थी जिन्हें उसने चौधरीजी के साथ ही खेलते हुए देखा था सो एक मिठाई का डब्बा भी उसने ले लिया था। थोड़ी ही देर में अमर चौधरी रामलालजी के घर के सामने खड़ा था। चौधरीजी कहीं दिख नहीं रहे थे। अभी वह किसीसे उनके बारे में पूछता कि तभी सामने से उसे भोला आता हुआ दिखाई पड़ा। आज भोला को पहचानने में उसने कोई गलती नहीं की। उसे देखते ही अमर ने दोनों हाथ जोड़ते हुए उसका अभिवादन किया , “राम राम भोलाजी ! ”
भोला ने भी प्रत्युत्तर देते हुए सवाल किया “अब कैसे हो अमर बाबु? और वो लड़की कैसी है? “अमर ने विनम्रता से जवाब दिया था “मैं तो बिलकुल ठीक भला चंगा आपके सामने ही हूँ और आपके और चौधरीजी की मेहरबानी से वह लड़की भी अब ठीक है। लेकिन चौधरीजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे? “अमर ने लगे हाथ भोला से चौधरी के बारे में पूछ लिया। भोला ने हंसते हुए जवाब दिया “चौधरीजी ने खेतों में मजदूर लगाये हुए हैं। मैं भी उधर ही जा रहा हूँ। चाहो तो मेरे साथ आ सकते हो !”
“ठीक है।” कहकर अमर भोला के साथ हो लिया।