कवितापद्य साहित्य

माँ तुम कहीं नहीं जाती हो –

माँ तुम कहीं नहीं जाती हो
बेटी के अस्तित्व में ही बस जाती हो|

माँ तुम तब तो बिल्कुल नहीं भाती हो
जब मेरी बेटी किशोरावस्था की
दहलीज को लाघंती हैं
तुम उलजुलूल नसीहतें देने लग जाती हो|

जब नातिन जवान हो जाती है
तेरा अस्तित्व जाग जाता है
जो छुपा बैठा होता हैं
बेटी के ही अन्दर!!

कितनी भी नसीहतें दूँ
नये जमाने की की दूँ मैं दुहाई
समझाऊं कितना भी मन को
पर तुम विद्रोह कर देती हो
दोष तेरा भी नहीं तू माँ जो ठहरी |

माँ तुम कहीं नहीं जाती हो
यहीं मेरे अस्तित्व में ही
बसी रह जाती हो |

चिता भले जला दी गयी हो तेरी
पर अपनों की चिंता
तुझे सताती रहती है
सुलगती हुई चिंगारी सी तू
मेरे ही अन्दर सोयी पड़ी है!

यौवन की दहलीज पर
रखते ही कदम नातिन के
तुम भड़क जाती हो
अस्तित्व में जो सोयी पड़ी थी
एकबारगी जग जाती हो!

बिटिया कहती हैं माँ
तुम बदल गई हो
किस्से जो नानी के सुनाती थी कभी
खुद ही तुम उसी में ढल गयी हो| …….सविता मिश्रा

 

 

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|