ऋषि दयानन्द के दो मुख्य मन्तव्य और उनके अनुसार मनुष्य का कर्तव्य
ओ३म्
ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ के अन्त में ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ के अन्तर्गत अपने निजी मन्तव्यों का प्रकाश किया है। अपना निजी मन्तव्य बताते हुए वह लिखते हैं कि ‘मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूं कि जो तीन काल में सबको एक सा मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अप्रिप्राय नहीं है, किन्तु जो सत्य है, उसको मानना, मनवाना, और जो असत्य है, उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझको अभीष्ट है। यदि मैं पक्षपात करता तो आर्यावर्त में प्रचलित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो जो धर्मयुक्त बातें हैं उनका त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूं, क्योंकि ऐसा करना मनुष्य धर्म से बहिः है।’ हम समझते हैं कि ऋषि ने अपना जो मन्तव्य प्रकाशित किया है उसका उन्होंने अपने जीवन में हर क्षण, हर पल व हर स्थान पर पूर्णतया पालन किया है। यह भी विशेष है कि संसार के शायद किसी विद्वान व मत प्रवर्तक ने ऐसी कभी कहीं कोई घोषणा, लिखकर व बोलकर, की हो या इस सर्वमान्य मन्तव्य का पालन किया हो। अतः ऋषि दयानन्द हमें सभी मत प्रर्वतकों में प्रमुख व संसार के शीर्षस्थ एकमात्र महापुरुष प्रतीत होते हैं।
मनुष्य का कर्तव्य वा गुण-कर्म-स्वभाव कैसे हों, इसका प्रकाश करते हुए वह कहते हैं कि ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख–दुःख और हानि–लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामथ्र्य से धर्मात्माओं की, कि चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथपि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी चले ही जावें, पन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवें।’ हमारी दृष्टि में यदि आप सभी धर्म ग्रन्थों का अध्ययन कर लें, तो भी इससे अधिक अच्छी, महत्वपूर्ण, आदर्श, सर्वांगीण व सर्वमान्य मनुष्य की परिभाषा वा मनुष्य के कर्तव्य, गुण, कर्म व स्वभाव आदि कहीं नहीं पायेंगे। हमें तो लगता है कि आज की परिस्थितियों में इन शब्दों को भारत की संसद के अन्दर व बाहर मोटे-मोटे स्वर्णिम अक्षरों में लिखकर प्रदर्शित किया जाना चाहिये। देश के सभी नागरिकों सहित सभी नेताओं से इसकी शपथ लेने को भी कहना चाहिये।
उपर्युक्त दोनों विशेष विचारों, कथनों व वचनों के लिए महर्षि दयानन्द जी का धन्यवाद करने सहित उनकी जय जयकार कर हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य