“मुक्तक”
तहखाने खुद राज उगलने लगे, बेचारे नोट बाहर फुदकने लगे
दिवारें खुलकर सांस लेने लगी, नियति हथौडों के बदलने लगे
भला हो गुलाबी रंगत गुलाबी ठण्ड का सिहरन के शीलन में
यूँ ही नहीं अनसुनी सड़कों पर भरोषे के प्रचलन पसरने लगे।।-1
आत्मा कहीं और तो शरीर कहीं और आत्मसात होती है
समय जहाँ ले जाए एक नए शख्स से मुलाकात होती है
चहल-पहल, राग-रंगत, उथल-पाथल की बनी चौहद्दी में
उठते-बैठते, मिलते-बिछड़ते, कभी तो रूहानी बात होती है।।-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी