ग़ज़ल – दर्द की तासीर बन दिल में ठहर जाते हैं लोग
इस तरह कुछ जोश में हद से गुज़र जाते हैं लोग।
जुर्म की हर इन्तिहाँ को पार कर जाते हैं लोग ।।
हर तरफ जलते मकाँ है आदमी खामोश है ।
कुछ सुकूँ के वास्ते जाने किधर जाते हैं लोग ।।
अहमियत रिश्तों की मिटती जा रही इस दौर में ।
है कोई शमशान वह अक्सर जिधर जाते हैं लोग ।।
यह शिकन ज़ाहिर न हो चेहरा न हो जाए किताब।
आईने के सामने कितना सवर जाते हैं लोग।।
गाँव खाली हो रहा कुछ रोटियों की फेर में ।
माँ का आँचल छोड़ कर देखो शहर जाते हैं लोग।।
बाप की थीं ख्वाहिशें बेटा निभाए उम्र तक ।
हो बुढ़ापे का तकाजा तो मुकर जाते हैं लोग ।।
देखिये मतलब परस्ती का ज़माना आ गया ।
मांगिये थोड़ी मदद तो खूब डर जाते हैं लोग ।।
कौन कहता दौलतों से वास्ता उनका नहीं ।
कुर्सियो पर बैठकर काफ़ी निखर जाते हैं लोग ।।
ऐ मुसाफिर यह हक़ीक़त भी हमे मालूम है ।
इश्क़ में कुछ ठोकरें खाकर बिखर जाते हैं लोग ।।
बिक गया मजबूरियों के नाम पर वह हुस्न भी ।
घुंघरुओं के बज्म में चारो पहर जाते हैं लोग ।।
भूल जाना भी मुकद्दर का बड़ा तोहफ़ा यहां ।
दर्द की तासीर बन दिल में ठहर जाते हैं लोग ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी