राजनीति

सभी राजनैतिक दलों को सुधारने व चुनाव सुधार करने का सही समय

गत 2 जनवरी को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने धर्म, जाति और मत-संप्रदाय के नाम पर चुनाव लड़ने को असंवैधानिक करार दिया है। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय खंडपीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है और लोग किसकी पूजा करते हैं वह उनकी व्यक्तिगत इच्छा का मामला है। इसलिए राज्य को इस गतिविधि में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं है। अदालत ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया है कि इन आधारांे पर वोट मांगना चुनाव सुधारों के तहत भ्रष्ट व्यवहार होगा जिसकी अनुमति नहीं है। इस फैसले के बाद आशा थी कि राजनैतिक दल समझदारी का परिचय देंगे, लेकिन अभी चुनाव प्रक्रिया पटरी पर भी नहीं आयी है कि सभी दलों ने पूरी ताकत के साथ न्यायपालिका की अवमानना करना प्रारम्भ कर दिया है। इस फैसले के बाद सबसे बड़ी समस्या मुकदमेबाजी की बाढ़ आने की थी, लगभग वह भी शुरू हो चुका है।

सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले की सर्वाधिक अवमानना उ.प्र. सहित पांच प्रांतों मंे होने जा रहे आगामी चुनावों में देखने को अवश्य मिलेगी और वह प्रारम्भ भी हो चुकी है। उ.प्र. मंे तो लगभग सभी दल पूरी ताकत के साथ धर्म व जाति की गजब की राजनीति करने जा रहे हैं । उप्र में तो भाजपा सांसद साक्षी महाराज इसके शिकार भी बन चुके हैं। मेरठ में 4 बीवियों व 40 बच्चों को लेकर दिये गये बयान के खिलाफ उन पर सभी दलों ने कार्यवाही करने की मांग की है तथा वह शुरू भी हो चुकी है। सभी विरोधी दल दावा कर रहे हैं कि भाजपा सांसद का बयान सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के खिलाफ है। उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिये। लेकिन सबसे मजेदार बात यह है कि उप्र में धर्म व जाति पर सबसे खतरनाक राजनीति तो भाजपा विरोधी कर रहे हैं। सबसे अधिक मुकदमे भी भाजपा विरोधी दलों के खिलाफ ही होने जा रहे हैं। वर्तमान समय में सबसे अधिक उग्र मुस्लिमपरस्त राजनीति व जातिगत राजनीति को हवा देने का काम बसपानेत्री मायावती कर रही हैं। मायावती ने अपने उम्मीदवारों का परिचय धर्म व जाति के आधार पर करवाया है।

खबर है कि मायावती के खिलाफ चुनाव आयोग में याचिका भी दायर हो गयी है और उनके खिलाफ एफआईआर व बसपा की मान्यता रद्द करने की मांग भी की गयी है। अदालत के फैसले को यदि नजदीक से देखा जाये तो बसपानेत्री मायावती इसका सीधा शिकार हो सकती हैं। यहां पर चुनाव आयोग व चुनाव आचार संहिता का पालन करवाने वाले अधिकारियों की निष्पक्षता की भी अग्निपरीक्षा होने जा रही है। बसपा तो मुस्लिम बहुल इलाकों में धर्म के आधार पर जनसभाएं भी कर रही हैं तथा मुस्लिम समाज में दंगों के भय का वातावरण भी पैदा कर रही हैं। अपनी हर प्रेसवार्ता में किसी न किसी प्रकार से धर्म के आधार पर मुस्लिम समाज व फिर जाति के आधार पर ही समाज को संबोधित करते हुए वोट देने की मांग कर रही हैं।

सपा नेता आजम खां कह रहे है कि जबसे समाजवादी परिवार में दंगल का आरम्भ हुआ है तब से मुस्लिम समाज असमंजस व दुविधा के भंवर में डूब गया हैं। वह सोच नहीं पा रहा है किधर जायें। सपा मंे तो सपा मुखिया मुलायम सिंह मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी हैं ही, वहीं सपा के नये संभावित सुल्तान अखिलेश यादव ने तो अपनी सरकार के कार्यकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण की गजब की आंधी चला दी थी। सपा में चल रहे दंगल के बीच सबसे दिलचस्प मुकाबला यह देखना बाकी है कि यदि दोनों खेमे अलग-अलग चुनाव मैदान में जाते हैं, तो दोनों ही ओर से कितने मुस्लिम बाहुबली उम्मीदवार चुनाव मैदान में अपना खम्भ गाड़ते हैं। दोनों ही पक्षों को मुस्लिम मतों की जोरदार आस रहने वाली है और धर्म व जाति की राजनीति भी गजब की करने वाले हैें।

वहीं उप्र के चुनावों में इस बार यदि कांग्रेस का किसी दल से समझौता नहीं हुआ तो वह भी मुस्लिमपरस्त और अतिपिछड़ों को उनका हक दिलाने के बहाने काफी जोरदार ढंग से धर्म व जाति का खेल खेलने वाली है। माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस किसी भी दल व गुट के साथ कोई समझौता करेगी तो वह भी धर्म व जाति के आधार पर नफा-नुकसान देखकर ही करेगी। कांग्रेस की ओर से जो भी चुनावी बयानबाजी शुरू हुई है वह भी धर्म व जाति के धंधे की राजनीति से ही शुरू हुई है।

उप्र की राजनीति में कुछ नये दलांे का भी प्रादुर्भाव हो रहा है तथा अन्य छोटे दल भी केवल धर्म व जाति के नाम चुनावी गठबंधन कर रहे हैं तथा चुनाव आयोग की मिशनरी के प्रयासों को धता बताते हुए ये सभी छोटे दल कालेधन को भी खपाने का काम करने वाले हैंे। हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आल इण्डिया मजलिस-ए-इततेहादुल- मुसलमीन अकेले ही चुनावी मैदान में कूदने जा रही है। ओवैसी का पूरा एजंेडा ही धर्म पर आधारित है। वहीं दूसरी ओर डा. अय्यूब खान के नेतृत्व वाली पीस पार्टी ने अपने सहयोगी दल निर्बल इण्डियन शोषित हमारा आम दल (निषाद पार्टी) के साथ मिलकर लड़ेंगे। इस बार के विधानसभा चुनावों में सबसे खास बात यह सामने आ रही है कि सभी दल केवल भाजपा को ही हर हाल में रोकना चाहते हैं लेकिन अभी तक किसी भी दल व गुट का ऐसा बड़ा गठबंधन सामने नहीं आ पाया है जो कि भाजपा को रोकने मंे सफल हो सके। सभी दल केवल धर्म के आधार पर वह भी केवल मुस्लिमपरस्त राजनीति ही कर रहे हैं।

वहीं एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी पर आमतौर पर हिंदुवादी राजनीति करने का आरोप लगाया जाता है और सभी दल उस पर मुस्लिम समाज मंे भय उत्पन्न करने का आरोप लगाते हैं। भाजपा विरोधी भाजपा को दंगा कराने वाली पार्टी कहते हैं। लेकिन इस बार भाजपा ने पीएम मोदी व अमित शाह की अगुवाई में अपना एजेंडा कुछ सीमा तक बदल दिया है। वह गरीबों का विकास और गरीबी हटाओ पर अपना चुनाव अभियान केंद्रित करने जा रही है। हर बार की तरह ”सबका साथ सबका विकास“ उसका नारा रहना वाला है। लेकिन भाजपा ने भी नोटबंदी से परेशान व विपक्षी दलों के हमलों को कुंद करने के लिए मुस्लिम समाज से लोकलुभावन वादे करने प्रारम्भ कर दिये हैं।

उप्र सहित पांचों प्रांतों में मुसलमानों को सकारात्मक संदेश देने के लिये वर्ष 2018 के शैक्षणिक सत्र से पांच विश्वविद्यालय खोलने का निर्णय किया है। अब सवाल उठता है कि आखिर भाजपा सरकार को यह सब करने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? यह भी एक प्रकार का मुस्लिम तुष्टीकरण और धर्म के आधार पर शिक्षा व विद्यार्थी का विभाजन ही माना जायेगा। वर्तमान समय में हर कोई दल येनकेन प्रकारेण मुस्लिम तुष्टीकरण को ही बढ़ावा देता जा रहा है। अब हम 2017 में पहुच गये हैं तथा इसी प्रकार 2020 के आगे की भी सोच रहे हैं। लेकिन देश के तथाकथित दल सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी कानून या आदेश मानने को तैयार नहीं दिखते। अपने आप को धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले सभी दल मुस्रिूलम तुष्टीकरण व जातिगत राजनीति करने में सबसे आगे हैं।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट गाइडलाइन दे दी है। चुनाव आयोग को कानून का सहारा मिल गया है। अब वह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पाखंडी राजनीति करने वाले सभी दलों पर लगाम कसने के लिए स्वतंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर वह उन सभी लोगों व दलों का परीक्षण करें जो उक्त निर्णय के दायरे में आ रहे हैं। चुनाव को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष बनाने में यह आदेश काफी मददगार साबित हो सकता है। सभी बयान, सभी उम्मीदवार, सभी चुनाव घोषणापत्र तथा वे सभी लोग व दल जो ईदगाह, चर्च, गुरूद्वारा, मंदिर व अन्य धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से व उनमें भाग लेकर चुनावांे को प्रभावित करते हैं उन सभी तत्वों व परिस्थितियों की जांच व कार्यवाही इन्हीं चुनावों से प्रारम्भ कर देनी चाहिये। अब समय आ गया है धर्म, जाति, संप्रदाय तथा मत आदि के नाम पर चुनाव लड़ने वाले दलों के खिलाफ स्ट्राइक की जाये। विगत चुनावों में देखा गया है कि एक धर्म विशेष चुनावों को लेकर फतवे जारी करता रहा है तथा राजनैतिक दल मुस्लिम समाज को लुभाने के लिए अपना कार्यक्रम बतलाने के लिये भी मस्जिदों का सहारा लेते रहे हैं, उस पर भी व्यापक नजर रखने का समय आ गया है।

कालेधन के खिलाफ स्ट्राइक होने के बाद अब राजनीति को सुधारने के लिये यह कार्यवही बेहद जरूरी हो गयी है ताकि धर्म, जाति, मत व संप्रदाय के नाम पर वोट मांगना बंद हो सके। भारतीय राजनीति में फतवा राजनीति बंद हो सके। इस समय उ.प्र. में एक ओर चीज चल रही है कि कभी वैश्य महासभा का आयोजन होता है तो कभी क्षत्रिय महासभा का। इनकी गतिविधियां पर भी नजर रखने की आवश्यकता है क्योंकि इस प्रकार के संगठन जातिगत आधार पर चुनावी समीकरणों को बनाने व बिगाड़ने का काम करते हैं। ऐसी जगहों पर राजनैतिक दलांे के नेता पर्याप्त भाग लेते हैं। आगामी विधानसभा चुनाव चुनाव आयोग व सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी कड़ी अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहे हैं।

मृत्युंजय दीक्षित