हास्य-व्यंग रचना
“खुश्बुदार पैंट”
सूट बूट टाई वाई लगाकर हैट कैट
दिखाते हुए निकले जनाब अपना फैट
सुबह सुबह किचकिच है पीच सड़क पर
लबालब लोटे की लटकन भरी मलक पर
पानी का गिरना भी तो आम बात है
गुदगुदी दबाये बैठे हुए तमाम हाथ हैं
चुक गई उनकी नजर भीगी जमीन पर
गिर गए धड़ाम से मानों नग नगीन पर
खिदमत में काश आते अठखेलियों के टेंट
ऊई मां मुख पोछते नजर आए खुश्बुदार पैंट॥-1
“सम्हला नहीं वक्त”
हँसने लगे अगल बगल पर खड़े दरख्त
जिनकी ओट में निकल जाते हैं कुछ वक्त
सूरज भी अब निकला है बेहआई सुखाने
साफ सुधरे शरीफों को जुमला सिखाने
अपने अपने भार उठाती है जागकर रियाया
वाह रे फिसलन तूने भी अपना रंग दिखाया
लगता है कुछ अपने आए है मन बहलाने
सूट किया फ़ोटो लगे तसल्ली को भुनाने
रखता रहा फूँक फूँक कर पाँव अपने सख्त
लानत है यह मोटापा सम्हला नहीं उस वक्त॥-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी