फिर निकला आरक्षण का जिन्न
आरक्षण का मुद्दा जितना संजीदा है, उतना ही सियासी और पेंचदार भी है । यूँ तो आरक्षण के इतिहास पर अगर नजर डाले तो इसकी शुरूआत आजादी के पहले महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहू जी महराज ने 1901 में प्रेसीडेंसी रीजन और रियायतों में पीछड़े वर्ग की गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन के नौकरी में उनकी हिस्सेदारी तय करने के लिए किया था । 1935 में भारत सरकार अधिनियम के तहत सरकारी नौकरी में पीछड़े वर्ग हेतु आरक्षण सुनिश्चित किया गया लेकिन भारत में दलित आंदोलन के मसीहा तथा भारत के संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर साहब ने 1942 में शिक्षा के क्षेत्र में तथा सरकारी नौकरी में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई ।
जब भारत के संविधान निर्माताओं ने आजादी के पश्चात कुछ वैसी जातियों को सूचीबद्ध किया जो या तो दलित , अतिपीछड़े और गरीब थे या उनकी संख्या कम होने के कारण उनका विभिन्न सरकारी क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व का अभाव था । ऐसी जातियों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया । अनुसूचित जाति के लिए जहाँ 15 प्रतिशत आरक्षण तय किया गया वही अनुसूचित जनजाति हेतु 7.5 प्रतिशत आरक्षण देना तय हुआ । यह भी तय हुआ कि यह सिर्फ पाँच वर्षों तक लागू करने के बाद पुनः इसकी समीक्षा होगी तदुपरांत आगे की दिशा तय की जाएगी ।
अगर इसके उदेश्य पर एक दृष्टि डाले तो शिक्षा , नौकरी ,सरकारी कल्याणकारी योजनाएं तथा चुनाव में हर वर्ग की हिस्सेदारी हो इसके मद्देनजर ही यह फैसला लिया गया था लेकिन तब शायद कोई भी नहीं कह सकता था कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी यह न सिर्फ जारी रहेगा अपितु अलग अलग राज्यों के साधारण श्रेणी में आने वाली जातियाँ भी आरक्षण पाने हेतु आंदोलन छेड़ देगी और सिर्फ इतना ही नहीं यह भी कोई नहीं कह सकता था कि आरक्षण देश की राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा साबित होगा और राज्यों से लेकर देश की केन्द्र सरकार के निर्माण के बनने और बिगाड़ने में यह मुद्दा बहुत अहम भूमिका अदा करेगा।अगर सीधे शब्दों में कहूँ तो आज आरक्षण का मुद्दा संजीदगी से इतर सियासी हो गया । हर राजनीतिक दल आरक्षण के आर में राजनीतिक रोटी सेंकती रहीं है और सेक रही है । ऐसे में आरक्षण के मुद्दे को हर राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से भुनाने और उससे वोट बैंक में तब्दील करने पर भले ही लगी हो लेकिन आज की तारीख में किसी राजनीतिक दल में इतनी इच्छाशक्ति नहीं कि आरक्षण के मुद्दे पर वह एक कठोर निर्णय ले सके । यही कारण है कि आरक्षण के मुद्दे पर जहाँ इसके समर्थक मुखर हो कर बोलते है वहीं दूसरी तरफ अन्य राजनीतिक दल जिन्हें सवर्णों का मत प्राप्त होता है इससे बचने की कोशिश करते है तथा बैकफुट पर दिखाई पड़ते है । इसमें कोई दो राय नहीं कि आरक्षण के मुद्दे पर देश के नागरिक तीन भागों में विभक्त है । सबसे पहले एक वर्ग जिसे आरक्षण का लाभ मिल रहा है वे सदैव इसके समर्थन में खड़े रहते है । दूसरे वह वर्ग है जिसे लगता है कि देश के आजादी के इतने वर्ष बाद भी आरक्षण जारी रखना उचित नहीं है । इसे समाप्त कर देना चाहिए लेकिन देश का एक तीसरा वर्ग है जो आरक्षण का समर्थन तो करता है लेकिन चाहता है कि इसका आधार जातिगत न होकर आर्थिक हो । इन तीनों वर्गो के अपने अपने पक्ष में जायज और नाजायज दलील भी है । लेकिन राजनीतिक दलों की मुश्किल है कि आरक्षण पर लिया गया एक कठोर निर्णय भले ही देश को नयी दिशा दे सकता है लेकिन इस विषय पर हुआ वोटों के समीकरण का उलटफेर किसी राजनीतिक दल को हासिए पर ला खड़ा कर देने का माद्दा रखता है ।
भारत में दो राज्य, बिहार और उत्तर प्रदेश क्षेत्र फल और सीटों की संख्या से ऐसे राज्य है जो देश की राजनीतिक दिशा तय करते है । इन दोनों राज्यों में प्रत्याशी चयन से लेकर वोट के समीकरण तक, सभी जातिगत आधार पर विभक्त है और दूसरे मुद्दे कितने भी गंभीर और आवश्यक हो इन दोनों राज्यों के चुनाव का मुख्य आधार जाति आधारित ही होता है । ऐसी स्थति में राजनीतिक दलों को भी अपने वोटो के समीकरण इस आधार पर ही बुनने पड़ते है । ऐसी हालत में एक गलत बयानी सियासी तौर पर बेहद भारी पड़ सकती है ।
जब पीछला बिहार विधान सभा चुनाव हुआ , राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो केन्द्र सत्ताधारी दल के विचारों की बुनियाद माना जाता है । उसके प्रमुख मोहन भागवत का चुनाव के समय आरक्षण विरोधी बयान आया हलांकि बाद में उन्होने हालत को देखते हुए अपने बयान को अलग दिशा देने की कोशिश की लेकिन वक्त की नजाकत को देखते हुए देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को यह कहना पड़ा कि वो आरक्षण के पक्षधर है और मरते दम तक आरक्षण के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे । इसका खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि जो वर्ग पीछड़े वर्ग जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलता रहा है वे तो खफा हुए ही साथ आरक्षण विरोधी वर्ग भी प्रधानमंत्री जी के इस बयान से कहीं न कही आहत हुआ । इसका खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि भाजपा गठबंधन समूह को विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता मनमोहन बैध के जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दिए ऐसा ही एक और बयान ने आरक्षण के जिन्न को फिर से राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है जब उतर प्रदेश के विधान सभा चुनाव की घोषणा की जा चुकी है । हलांकि बिहार विधानसभा चुनाव की तरह ही इसे संभालने की कोशिश जारी है लेकिन मायावती, लालु यादव तथा मुलायम सिंह यादव जैसे नेता जिनका राजनीतिक आधार जातिगत वोट है , उन्हें एक मुद्दा मिल गया है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।
उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरण का एक अवलोकन करे तथा एक आँकड़े की माने तो समान्य वर्ग का मत 20.49 प्रतिशत, पीछड़ा वर्ग 54.5 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 24.95 प्रतिशत और,अनुसूचित जनजाति 0.06 प्रतिशत । इन समीकरण के बीच आरक्षण के विरूद्ध दिया बयान हानिकारक ही साबित होगा इसमें कोई दो राय नहीं है । अब देखना यह दिलचस्प होगा कि भाजपा गठबंधन दल कैसे इस जिन्न से अपना पीछा छोड़वाते हुए अपनी जीत कायम करते है या बिहार विधानसभा चुनाव की तरह हार का सामना करते है ।
अमित कु.अम्बष्ट ” आमिली ”