फिर आया लुभावने वादों का मौसम
विगत दिनों देश के पाँच राज्य उत्तर प्रदेश, पंजाब ,उत्तराखंड, गोवा तथा मणिपुर में चुनाव के तिथि की घोषणा कर दी गई है । अलग अलग इन राज्यों में अलग अलग तिथि तथा कई चरणों में चुनाव प्रायोजित है और इस घोषणा के साथ ही हर राज्य में भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों की चुनावी तैयारी अपने चरम पर है । राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं का चुनावी दौरा भी तेज हो गया है साथ रैलियों का बाजार भी गर्म है । सबके अपने अपने समीकरण तथा अपनी बात जनता तक पहुंचाने के अपने अपने तरीके है । सभी राजनीतिक दलों के जीत के दावे और उस दावे को पुख्ता करने की कोशिश में अलग अलग दलील । जोड़ तोड़ से लेकर दल बदल तक राजनीतिक दल एक दूसरे से किसी भी कीमत पर बीस ही दिखना चाहते है ।
लेकिन इस सबके बीच जनता की नजर जिस बिंदु पर अटकी है वो है सभी राजनीतिक दलों का वादों से भरा घोषणा पत्र । जिसके विवरण से राजनितिक दल अपने भविष्य की योजनाओं को जनता के बीच पहुंचाते है और जनता को राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में अपने सपने की तालाश होती है । लेकिन देखना यह भी आवश्यक है कि वादों के इस मौसम में राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में ऐसे कितने वादें है जिसके मुकम्मल होने की संभावना है और कितनी वादें सिर्फ चुनावी तड़का है । साथ यह भी देखना जरूरी है कि जो वादे किए गए है उसका बुनियादी लाभ भी आम जनता को मिल पाएगा या फिर यह लालच देकर वोट अपने पाले में करने की साजिश है ।
अगर हम पंजाब और उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनाव में शामिल कुछ बड़े दलों के घोषणापत्र का अवलोकन करे तो बात शुरू करना चाहूँगा पंजाब विधान सभा चुनाव में पहली बार अपनी किस्मत आजमा रहे वादों का पिटारा लिये खड़े आम आदमी पार्टी से । आम आदमी पार्टी ने दिवंगत जयललिता जी के तर्ज पर आम आदमी कैंटीन खोलने तथा सिर्फ 5 रू में ही भोजन उपलब्ध करवाने की बात कही है । निसंदेह देश में गरीबी बहुत है लेकिन पंजाब और वहाँ के निवासी के बारे में सोचने मात्र से जो जेहन मे भाव और चित्र उभरता है वो एक एक मेहनतकश निवासी से भरे राज्य का , और जहाँ तक मुफ्त या सस्ते खाने की बात है , देश में एक गुरूद्वारा ही ऐसा स्थल है जहाँ हर रोज भोजन का लंगर लगता है और भोजन सस्ता नहीं मुफ्त मिलता है । फिर भी वहाँ भोजन हेतु कभी भगदड़ या छीना झपटी की खबर नहीं आती क्योकि यह सब बहुत श्रद्धा से होता है और एक और बहुत बड़ी बात यह है कि पंजाब के लोग गैरतमंद है । ऐसे में 5 रू में भोजन वोट के लिए मन लुभावन भले हो किन्तु पंजाब की जरूरत कतई नहीं है । जरूरत है ऐसे अवसर प्रदान करने की जिससे भोजन हेतु ऐसे कैंटीन का रूख ही नहीं करना पड़े। 5 लाख रूपये के मुफ्त कैशलेस हेल्थ इंश्योरेंस भी लालच में डालने की ही कोशिश है । अगर पंजाब में भाजपा और अकाली दल का घोषणा पत्र देखे तो वो इस प्रतिस्पर्धा में किसी से कम नहीं है । जब सारा देश बिजली और पानी की कमी से जुझ रहा है वैसी हालत में इन चीजों को मुफ्त कर राजनीतिक दल आपना उल्लू तो सीधा तो कर लेंगे किन्तु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका नुकसान हमें ही झेलना होगा । 10 रू में 5 किलो चीनी , 25 रू में 2 किलो घी जैसी योजनाएँ निसंदेह आर्थिक दूरदर्शिता से लिया गया निर्णय नहीं कहा जा सकता है । प्रेशर कुकर और स्टोव बांटकर वोट तो लिया जा सकता है लेकिन जीवन स्तर सुधारने हेतु उनकी बुनियाद को मजबूत करना होगा। उन्हें मुफ्त सामग्री देकर मुख्य धारा से अलग करने से अच्छा होता उनके लिए रोजगार, शिक्षा की व्यवस्था कर उनकी आर्थिक क्षमता बढाने की कोशिश की जाती । हर बेघर के लिए घर जैसा बड़बोलापन सभी राजनीतिक दल चुनाव के समय करते है और जीत जाने के बाद फिर हालात वहीं ढाक के तीन पात ।
अगर पंजाब चुनाव में कांग्रेस का घोषणापत्र देखे तो मुफ्त स्मार्ट फोन , मुफ्त बिजली जैसी योजना सीधे वोट खीचने की कवायद ही लगती है । बेरोजगार को बेरोजगारी भत्ता जैसी योजना हमेशा से रेवड़ी ही साबित हुई है । इससे हालात बदलने वाले नहीं है । यह भत्ता प्राप्त करने वाला भी जानता है और राजनीतिक दल भी समझते है ।
अगर उत्तर प्रदेश के चुनाव हेतु राजनीतिक दलों के घोषणापत्र का अवलोकन करे तो प्रथम दृष्टया साफ साफ दिखता है कि समाजवादी पार्टी लैपटॉप घर घर पहुंचाने पर आमादा है वही भाजपा ने लैपटॉप के साथ एक जी बी डेटा भी मुफ्त देने का वादा किया है । समाजवादी पार्टी ने 1 करोड़ लोगों को प्रतिमाह 1000 रू देने का वादा भी अटपटा है और इसकी क्या आवश्यकता है समझना मुश्किल है । निशुल्क चावल और गेंहू की योजना भी तात्कालिक फायदे हेतु घोषित योजना है । भाजपा को जहाँ फिर राम मंदिर की याद आई है । वहीं बसपा अब तक जातिगत जुगत भिड़ाने में मशगूल है । कुछ वादें तो आपको सभी दल के घोषणापत्र में मिल जाएंगे जैसे वाई फाई फ्री , किसानों के कर्ज माफी का वादा भी सभी राजनीतिक दल का पुराना हथियार है जिसे फिर से परोसा जा रहा है । कुल मिलाकर शिकारियों ने वोट हेतु अपना अपना जाल बिछा दिया है । अब किसके झोली में कितने वोट मिलते है देखना दिलचस्प होगा । इसमे कोई संदेह नहीं की इन लुभावने वादों के साथ सभी राजनीतिक दल कुछ अच्छे और सार्थक योजना के साथ भी अपना पक्ष रखा है लेकिन फिर सवाल वही कि चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक दल कितनी शिद्दत से इसे पूरा कर पाते है ।
लेकिन इन सभी बातों से उपर विचारणीय बात यह है कि . क्या इन सभी राजनीतिक दलों ने पीछले चुनाव में किए अपने वादों का कितना फीसदी पूरा किया है ? क्या चुनाव लड़ने की अनुमति और मान्यता के साथ पीछले चुनाव में किए गए वादों की समीक्षा नहीं होनी चाहिए? बिजली और पानी जिसका संरक्षण बेहद आवश्यक है उसे फ्री करना कितना जायज है ? ये तो हम सब समझते है कि दुनिया में कोई भी वस्तु मुफ्त नहीं मिलती तो क्या ऐसे वादों पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए? राजनितिक दल ऐसे वादें भी कर रहे जो संभव ही नहीं है । ऐसे वादों का कार्यान्वयन वो कैसे कर पाएंगे क्या चुनाव आयोग को नहीं पूछना चाहिए? पीछले चुनाव में किए गए वादों और उसके जिस प्रतिशत में वो पूरा किया गया हो क्या राजनीतिक दलों की उसके अनुसार ही सीटो की संख्या का निर्धारण और लड़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए? वादों को कम से कम 40% भी पुरा नहीं करने की स्थिति में क्या उस अमुख राजनीतिक दल को चुनाव में प्रतिबंधित करना सही कदम होगा ?
इन्हीं कुछ प्रश्नों के साथ आम जनता से यह उम्मीद की वो इन लुभावने वादों के भँवर जाल से खुद को बचाते हुए अपना प्रतिनिधि चुनने की कोशिश करे ।
अमित कु.अम्बष्ट ” आमिली “