ग़ज़ल
संग जितने पड़ें उतना ही सँवर जाते हैं
हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं
सारे मंज़र जो ख्यालों में ठहर जाते हैं
शाम ढलते ही निगाहों से गुज़र जाते हैं
देखता मैं भी उधर जा के, जिधर जाते हैं
रोज़-के-रोज़ कहाँ शम्स-ओ-क़मर जाते हैं
इश्क़ के दश्त में हो जाता है दरिया का भरम
इसी ग़फ़लत में कई लोग उधर जाते हैं
हिज्र में होती है जलने की चराग़-ए-उम्मीद
लोग बस वस्ल का ही सोच के डर जाते हैं
जब पहुँचना ही नहीं ज़ीस्त की मंज़िल पे कहीं
चलो ऐसा करें, गाड़ी से उतर जाते हैं
रात तो काट ही लेते हैं मेरे साथ, मगर
सुब्ह दम चाँद-सितारे ये किधर जाते हैं?
तैरते रहते हैं सदियों तलक उनके ही नाम
दरिया-ए-इश्क़ में जो डूब के मर जाते हैं