सामाजिक

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के प्रभाव विषयक एक प्रेरणाप्रद प्रसंग

ओ३म्

हम भारतीय पेट्रोलियम संस्थान, देहरादून में कार्यरत रहे और जुलाई, 2012 में 60 वर्ष की आयु पूर्ण कर सेवानिवृत हुए। सेवाकाल में हमारे साथ एक बहिन श्रीमती सन्तोष मुकन्द जी प्रशासनिक विभाग में कार्य करती थीं। आप हमारा बहुत आदर करती थीं। हम कभी जन्मना जाति विषयक शब्द का प्रयोग करना नहीं चाहते परन्तु यहां आवश्यकता होने पर इतना लिखना आवश्यक है कि वह दलित जाति की थीं। एक बार कार्यालय में बैठे हुए हम आपस में चर्चा कर रहे थे। मैं आर्यसमाज का अनुयायी हूं, यह बात उनको पता थी। मैंने अचानक पूछ लिया कि आपके कितने भाई व बहिन हैं। आपने बताया कि आप पांच बहिने हैं। सभी बहिनें सरकारी कार्यालयों में सम्मानित पदों पर कार्यरत हैं। उनके पिता के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारे पिताजी अधिक पढ़े लिखे नहीं थे। हिन्दी पढ़ लेते थे। उनके पास ऋषि दयानन्द लिखित सामाजिक परिवर्तन का क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश’ था। जब हम बहनें छोटी थीं तो पिताजी हम सब बहिनों को सायंकाल अपने पास बैठाकर बोलकर सत्यार्थप्रकाश पढ़ते और उसकी शिक्षाओं को हमें समझाते थे। इससे हमारे अन्दर शिक्षा प्राप्त करने के संस्कार उत्पन्न हो गये थे। हमें सब भाई बहिनों को हमारे निर्धन माता-पिता ने अपनी पूरी क्षमता से पढ़ाया। सभी बहिने स्नातक व पोस्ट ग्रेजुएट उपाधिधारी बनीं। सत्यार्थप्रकाश की शिक्षा का ही परिणाम है कि सत्यार्थ प्रकाश से हमारे परिवार को शिक्षा व विद्या का महत्व पता चला और हम सभी बहिनें सुशिक्षित हुईं और सभी को सरकारी नौकरियां भी प्राप्त हो गयीं। उन्होंने कहा कि वह और उनका परिवार सत्यार्थप्रकाश के ऋणी हैं। जिसने भी सत्यार्थप्रकाश को पढ़ा और समझा, उसने प्रायः इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं।

इस प्रसंग के द्वारा हम यह बताना चाहते हैं कि सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से क्या परिवर्तन आता है? हमारी आपको भी सलाह है कि आप परिवार के छोटे बच्चों को साथ बैठाकर सायं 15 मिनट का समय निकाल कर सत्यार्थप्रकाश पढ़े और उसकी शिक्षाओं को समझने का प्रयत्न करें। बच्चों के साथ सत्यार्थप्रकाश पढ़ते हुए चैथे समुल्लास में विवाह आदि की बातों को छोड़ा जा सकता है। इससे निश्चित ही बच्चों को अच्छे संस्कार मिलेंगे और उन्हें कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा। हम आज जो भी हैं, वह सब महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज और सत्यार्थप्रकाश के कारण ही हैं।  हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि यदि हम आर्यसमाज से न जुड़े होते तो हमारा भविष्य क्या होता? हमारे मित्र कर्नल रामकुमार आर्य जी से भी आज भेंट हुई। उन्होंने अपने स्कूल व वहां प्रतिदिन सन्ध्या व हवन किये जाने का उल्लेख किया और बताया कि उन्हें आर्यसमाज के संस्कार अपने हिसार वाले प्राइमरी स्कूल से ही मिले हैं। वह आगे बोले कि मनमोहन ! यदि हम आर्यसमाजी न बनते तो न जाने हमारा जीवन कैसा होता? हम भी कहीं पौराणिक पण्डितों द्वारा ठगे जा रहे होते। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, गंगा स्नाना, जन्मना जाति के अहंकार व न जाने क्या क्या अविद्या की बातों को मानते? हमने उनके साथ अपनी सहमति व्यक्त की।

आईये ! ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज और सत्यार्थप्रकाश को विशेष रूप से जीवन में अपनायें और अपने जीवन का निर्माण करें। ऐसा करने से हमें लाभ ही लाभ होगा, हानि कुछ भी नहीं। हमारा यह जन्म ही नहीं परजन्म भी सुधरेगा व निखरेगा। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य