इंसानियत – एक धर्म ( भाग — तेइसवां )
घटनास्थल से फरार होकर मुनीर पैदल ही अपने गांव की तरफ चल दिया था जो वहां से तकरीबन सात आठ किलोमीटर दूर एक देहात में था । अपनी नौकरी के सिलसिले में वह रामपुर थाने के करीब ही एक कमरा किराये पर लेकर रहता था । कभी कभार छुट्टी मिलने पर अपने गांव हो आता । सितारों की मद्धिम रोशनी में चलते हुए कच्चे रास्ते पर कभी कभी ठोकर खाकर लड़खड़ाता और फिर संभलते हुए आगे बढ़ना जारी रखता । चलते चलते कभी कभार पिछे भी मुडकर देख लेता और फिर किसी के पीछे आने की शंका निर्मूल समझकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाता । रास्ते के दोनों तरफ दूर दूर तक फैला सुनसान वीराना काफी रहस्यमय प्रतीत हो रहा था । दूर कहीं पेड़ों की श्रृंखला अंधेरे की चादर ओढ़े सितारों की हल्की रोशनी में बड़े रहस्यमय से दिख रहे थे । अपनी बढ़ी धडकनों पर काबू पाने का प्रयत्न करता हुआ मुनीर अभी थोड़ी देर पहले ही घटे घटनाक्रम पर विचार करते हुए खुद को भी धिक्कारता जा रहा था । उसके दिमाग में सरगोशियां तेज होती जा रही थी । ‘ सारा कसूर मेरा ही है । मैंने ही आलम साहब को समझने में भूल की थी । उसको क्यों नहीं रोक पाया जब वह उस लड़की की तरफ बढ़ रहा था । रोकना तो दूर उल्टे उसका साथ देकर उसकी हिम्मत बढ़ा रहा था । ‘ मन ही मन अपने ही अपराध बोध से वह दबा जा रहा था । विचारों का बवंडर उसके दिमाग में सरगोशियां कर रहा था ‘ वह उस नीच आदमी की बातों में कैसे आ गया ? जिन्हें वह काफ़िर कहकर नफरत की भाषा में बात कर रहा था और उनसे बदला लेने की बात कर रहा था उनकी इंसानियत को वह खुद क्यों भूल गया ? वह यह क्यों भूल गया कि उसकी बेगम आज भी अकेले ही दो छोटे बच्चों के साथ उन्हीं काफिरों के साथ उनके ही मोहल्ले में रहती है । जब भी फोन पर उससे बात होती है पड़ोस के रामु चाचा की तारीफ करना नहीं भूलती । कहती है ‘ आप अपना ख्याल रखिये और किसी बात की चिंता मत कीजिये । पड़ोस के रामु चाचा , बिरजू और घनश्याम हमारी मदद को हमेशा तैयार रहते हैं । कुछ भी लाना होता है पडोस के बच्चे दुकान से लाकर दे देते हैं । रामु चाचा ने सबको हिदायत दे रखी है । मजाल है कि कोई कुछ भी तकलीफ दे दे । ‘ उसका बड़ा बेटा आबिद जो गांव के ही सरकारी स्कूल में तीसरी कक्षा का विद्यार्थी है वह भी कभी कभार उससे फोन पर बात कर लेता । कहता ‘ अब्बू ! स्कूल में मुझे बड़ा मजा आता है । दीपू , रमेश , रौनक, विकास , कन्हैया और अजीम सहित हम सभी बच्चे मिलकर स्कूल में खाने की छुट्टी में खूब खेलते हैं । गुरुजी भी सभी बच्चों को बड़े प्रेम से पढ़ाते हैं । ‘ और इन सभी बातों को याद कर उसका मन और क्षोभ और खीज से भर गया । लेकिन अब उसके सामने पछताने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था । उस नराधम के उकसावे पर वह कितना बड़ा गुनाह करने जा रहा था । तभी उसकी आत्मा चीख उठी ‘ बेवकूफ आदमी ! क्या तू अभी गुनाह करने ही जा रहा था ? अरे तू गुनाह कर चुका है । उस अनजान मुसाफिर को मारने का गुनाह । तेरे एक ही वार में वह असावधान मुसाफिर ढेर हो गया था । पता नहीं अब वह कैसा होगा ? जिंदा है भी या …….. और तू सोच रहा है गुनाह करने जा रहा था । ‘ उस मुसाफिर और उसके गिरने का दृश्य याद आते ही मुनीर के जिस्म के सभी छिद्रों ने एक साथ पसीने का उत्सर्जन कर दिया । उसका मन सिहर उठा । ‘ यदि वह मुसाफिर मर गया तो ? ‘ आगे वह कुछ सोच ही नहीं सका ।
उसकी आत्मा का चीत्कार अभी जारी था ‘ अब तू गुनाहगार बन चुका है । चाहे वह इंसान जिंदा हो या न हो । दोनों ही सूरत में तुझ पर लगे इल्जामों की सिर्फ धाराएं ही बदलेंगी लेकिन सजा तो होना पक्का है । यदि वह मर गया तब तो धारा 302 लगना तय है लेकिन यदि वह बच भी गया तो चोट की गंभीरता को देखते हुए धारा 307 भी लगाया जा सकता है । दोनों ही सूरतों में तुझे सजा होना तय है । फिर ….? फिर क्या होगा तेरे इन दो मासूम बच्चों का ? तेरी प्यारी सी बेगम क्या तेरी इस वहशियाना हरकत को माफ कर पायेगी ? ये मोहल्लेवाले कब तक तेरे परिवार का पेट पालते रहेंगे ? नहीं ! उस जालिम का साथ देकर तूने बहुत बड़ा गुनाह किया है । अल्लाह तुझे कभी माफ नहीं करेगा । कभी माफ नहीं करेगा । ‘ उसके दिमाग में तेजी से यह सभी बातें घूम रही थीं और चल रहे थे उसी तेजी से उसके कदम । गिरते ,संभलते मुनीर अपने गांव के करीब पहुंच गया था । वक्त अभी ज्यादा नहीं हुआ था । रात के लगभग दस बज रहे थे । चाँद की मद्धिम सी रोशनी में पेड़ों के झुरमुट से उसके गांव के कुछ घर अब दिखाई पड़ने लगे थे । कुछ घरों के बाहर लगे बिजली के बल्ब भी रोशन हो रहे थे । उस पतली सी पगडंडी के दोनों तरफ कुश की झाड़ियां बढ़ गयी थीं जो दूर से काफी डरावनी लग रही थीं । मजबूत जिगर का स्वामी मुनीर भी अचानक कोई छवि देखकर सिहर उठता लेकिन अगले ही पल वह उस परछाईं या छवि की हकीकत को जानकर मुस्कुरा उठता । आसमान में चंदा बादलों से आंख मिचौली खेल रहा था । जब कभी चंदा बादलों की झुरमुट में छिप जाता वातावरण में स्याह अंधेरा छा जाता । दूर कहीं किसी सियार की आवाज वातावरण की खामोशी को भंग कर देती । दूर स्थिर से खड़े पेड़ किसी दैत्य के समान लगने लगते ।
इसी तरह कभी अंधेरे तो कभी चांदनी के उजाले में मुनीर अपना सफर तय करता रहा । अपने ही ख्यालों में गुम मुनीर गली के आवारा कुत्तों के भौंकने से खयालों की दुनिया से बाहर आया । अब वह मोहल्ले में अपने घर की तरफ जानेवाली गली में प्रवेश कर चुका था । गांव में लोग गहरी निद्रा में सो चुके थे और आवारा कुत्ते बड़ी मुस्तैदी से गांव की पहरेदारी करते हुए गांव के लोगों द्वारा खिलाये गए नमक का हक अदा कर रहे थे । बड़ी तेजी से भौंकते हुए ये आवारा कुत्ते अपना रौद्र रूप लिए मुनीर की तरफ बढ़ते और उसके नजदीक पहुंचते ही भौंकना भूल कर उसके सामने खड़े हो अपनी दुम हिलाने लगते । आनेवाला आगंतुक कोई अजनबी न होकर उनका परिचित जो था । और कुत्ते तो आखिर कुत्ते ही थे कोई वर्दी पहने इंसान थोड़े ही थे जो बिना कुछ लिए न जाने दें ।
गली में अगले मोड़ पर मुड़ने के बाद सामने ही उसका छोटा सा घर दिख रहा था । उसके घर के सामने के ही हिस्से में दो गायें बंधी हुई दिख रही थीं । जो शायद रामु चाचा की रही होंगी क्योंकि उनका घर मुनीर के घर से बिल्कुल सटा हुआ था । सामने ही खड़े निम के पेड़ों पर पत्त्ते हिलना भूल गए थे । पूरा गांव निद्रा की आगोश में जकड़ा हुआ था । ऐसे में
गली के कुछ कुत्ते अलबत्ता मुनीर की अगवानी कर रहे थे । अपने घर के दरवाजे के सामने पहुंच कर मुनीर ने इधर उधर चोर नजरों से देखते हुए दरवाजे की कुंडी खटखटायी । पहले प्रयास में ही उसे अंदर से आती हुई जनाना आवाज सुनाई पड़ी ” कौन है ? आती हूँ ! ” फिर किसी के कदमों की आहट उसे अपने नजदीक आती हुई प्रतीत हुई । वह दम साधे खड़ा रहा और दरवाजे के खुलने का इंतजार करने लगा ।