लघुकथा – उदारमना
वह स्वयं को दोराहे पर खड़ा देख रहा है। निर्णय नही ले पा रहा है कि किसे चुने और किसका साथ छोड़े।
एक तरफ वह लड़की है, जिसे वह समाज के सामने वचनबद्ध हो अग्निफेरे लेकर जीवन भर साथ निभाने का वादा देकर अपनी जीवन संगिनी बना लाया था। वह भी बचपन के सभी रिश्तों, सखी सहेलियों, पिता का आंगन सूना कर सिर्फ एक भरोसे पर उस अनजान के साथ चली आयी जिससे वह पहले कभी नहीं मिली थी।
दूसरी तरफ वह माँ है जो रात रात भर जाग कर उसे सूखे में सुलाती थी। उसके बीमार होने पर स्वयं बीमार सी हो जाती थी। पिता जी की डांट पर स्वयं ढाल सी खड़ी हो जाती थी।
वह अपनी स्थिति किसी को नहीं बतला पा रहा था। पत्नी को उसकी मनःस्थिति का अहसास हुआ (क्योंकि वह भी तो अपने माता-पिता से दूर चली आई थी।)।
पत्नी ने कहा, ‘आप माँ को चुन लें, वह अपने बेटे की जुदाई सहन नहीं कर सकेंगी।’
बहु के यह शब्द सुनकर सास को अहसास हुआ कि यह बहु नहीं बल्कि मेरी जैसी ही एक माँ का हृदय बोल रहा है। सास ने उदार मना अपनी बहू को गले लगा लिया।
— विजय ‘विभोर’
28/07/2017