धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर कैसा है और मृत्यु पर विजय का उपाय क्या है?

ओ३म्

इस संसार को और हमें बनाने वाला, जन्म देने वाला, पालन करने वाला व वृद्धावस्था आदि में मृत्यु को प्राप्त कर पुनर्जन्म प्राप्त कराने वाला वह सृष्टिकर्ता, पालक ईश्वर कैसा है? यह प्रश्न तो सरल है परन्तु इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर अनेक मत-मतान्तरों में तर्क, युक्ति व भ्रमरहित प्राप्त नहीं होता। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने मनुष्यों को अपने जीवन के सभी कार्यों को करने के लिए एक आचार संहिता के रूप में चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। इस ज्ञान में ईश्वर ने अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित कर संसार के सभी मनुष्यों के सम्मुख रखा है। ईश्वर को वेदों के माध्यम से जानकर ही हमारे प्राचीन सभी ऋषि-मुनि अपने जीवन का उद्देश्य उसी की प्राप्ति का मानते थे। ईश्वर की प्राप्ति के लिए जो प्रयत्न करते हैं उससे जीवात्मा सभी प्रकार की बुरी वासनाओं से निवृत्त होकर शुद्ध व पवित्र होकर ईश्वर को जान लेता है व जानने के साथ ईश्वर का धन ‘आनन्द’ व ‘‘परम सुख” जो सभी प्रकार के भय व दुःखों से रहित है, उसे प्राप्त करता है। लेख के शीर्षक में हमने जिन दो प्रश्नों को उठाया है उसका स्पष्ट और सटीक उत्तर यजुर्वेद के 31/18 मन्त्र में ईश्वर की ओर से दिया गया है। पहले मन्त्र प्रस्तुत है और फिर उसका हिन्दी में सरल अर्थ व भावार्थ प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। मन्त्र हैः

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।

इस मन्त्र में परमेश्वर बताते हैं कि मनुष्य यह कहे कि सर्वत्र परिपूर्ण सहस्रशीर्ष’ आदि विशेषण वाले पुरुष वा ईश्वर को मैं जानता हूं। वह पुरुष वा ईश्वर महानतम अर्थात् सबसे बड़ा है, उसके समान व तुल्य ब्रह्माण्ड में कोई अन्य परमेश्वर व इतर सत्ता नहीं है। वह ईश्वर आदित्यवर्णम्’ अर्थात् सूर्य का रचयिता और उसका प्रकाशक है। सूर्य को रचने करने वाला वह स्वप्रकाशस्वरूप परमेश्वर ही है अर्थात् वह अज्ञान व अन्धकारस्वरूप न होकर स्वप्रकाशस्वरूप ही है। हमारा वह आदित्यवर्ण परमेश्वर तम अर्थात् अविद्यादि व अन्धकार आदि दोषों से पूर्णतया रहित है। अपने इन गुणों के कारण वह अपने सत्यप्रमी धर्मात्मा जन भक्तों व उपासकों को अविद्या, अज्ञान व दुःखों आदि से तत्क्षण मुक्त व दोषरहित करने वाला है। ईश्वर को जानकर और उसकी कृपा को प्राप्त कर ही कोई मनुष्य स्वस्थ व सुखी हो सकता है। मन्त्र में आगे कहा गया है कि उस आदित्यवर्ण और तमसः परस्तात्’ परमेश्वर को जानकर जीवात्मा वा मनुष्य मृत्यु के पार वा उसका उल्लंघन कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है अन्यथा वह जन्म-मरण-पुनर्जन्म के चक्र में ही फंसा रहता है। मन्त्र में परमेश्वर ने यह भी बताया है कि विना परमेश्वर के ज्ञान व उसकी भक्ति के जन्म व मृत्यु के चक्र से मुक्त होने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। मृत्यु से मुक्ति केवल ईश्वर के यथार्थ ज्ञान व उसके अनुरूप ईश्वर की भक्ति व उपासना करके ही प्राप्त की जा सकती है। ऐसा न होने पर संसार में अन्य जीवों की तरह बार बार हमारा जन्म व मृत्यु होती रहेगी और हम सुख-दुःख के चक्र में फंसे रहेंगे। यह परमात्मा प्रदत्त ज्ञान सहित उसकी आज्ञा भी है जिसका सब मनुष्यों को निष्ठापूर्वक सेवन व पालन करना चाहिये।

हम ऋषि दयानन्द जी के जीवन पर विचार करते हैं तो इन्हीं प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए ही उन्होंने अपने माता-पिता व परिवार जनों को छोड़ा था और इनके समाधान जानने के लिए लगभग 16 वर्षों तक देश भर में घूम घूम कर विद्वान आचार्यों के सम्पर्क में आये थे और उनसे इन प्रश्नों का समाधान पूछा था। हमारा सौभाग्य है कि आज हमें इन प्रश्नों के उत्तर ज्ञात हैं। इतना ही नहीं है अपितु हमें वेदों के अनन्त ज्ञान की अथाह राशि प्राप्त है जिसे हम सत्यार्थप्रकाश व ऋषि दयानन्द जी के सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर प्राप्त कर सकते हैं और इससे उत्पन्न ज्ञान के अनुरूप भक्ति व उपासना कर जीवन-मुक्त हो सकते हैं।

महर्षि दयानन्द ने उपर्युक्त मन्त्र का अपने ग्रन्थ ‘‘आर्याभिविनय” में व्याख्यान किया है। उनका पूरा व्याख्यान प्रस्तुत है जो सबके लिए पठनीय एवं विचारणीय हैं। वह लिखते हैं ‘सहस्रशीर्षादि विशेषणोक्त पुरुष परिपूर्ण (पूर्णत्वात्पुरि शयनाद्वा पुरुष इति निरुक्तोक्तेः) है, उस पुरुष को मैं जानता हूं, अर्थात् सब मनुष्यों को उचित है कि उस परमात्मा को अवश्य जानें, उसको कभी न भूलें, अन्य किसी को ईश्ष्वर न जानें। वह कैसा है कि ‘‘महान्तम्” बड़ों से भी बड़ा उससे बड़ा वा तुल्य कोई नहीं है। ‘‘आदित्यवर्णम्” आदित्यादि का रचक और प्रकाशक वही एक परमात्मा है, तथा वह सदा स्वप्रकाशस्वरूप ही है। किंच ‘‘तमसः परस्तात्” तम जो अन्धकार अविद्यादि दोष उससे रहित ही है, तथा स्वभक्त, परमात्मा सत्यप्रेमी जनों को भी अविद्यादि दोषरहित सद्यः करनेवाला वही परमात्मा है।

विद्वानों का ऐसा निश्चय है कि परब्रह्म के ज्ञान और उसकी कृपा के विना कोई जीव कभी सुखी नहीं होता। ‘‘तमेव विदित्वेत्यादि०” उस परमात्मा को जान के जीव मृत्यु को उल्लंघन कर सकता है, अन्यथा नहीं, क्योंकि ‘‘नाऽन्यः, पन्था, विद्यतेऽयनाय” विना परमेश्वर की भक्ति और उसके ज्ञान के मुक्ति का मार्ग कोई नहीं है, ऐसा परमात्मा की दृढ़ आज्ञा है।

सब मनुष्यों को इसमें वर्त्तना चाहिये और सब पाखण्ड और जंजाल अवश्य छोड़ देना चाहिये। (महर्षि दयानन्द)’

यजुर्वेद का यह मन्त्र बहुत प्रसिद्ध, सरल व सारगर्भित है। इसमें जीवन के मूलभूत प्रश्नों का समाधान है। सभी मनुष्यों को धर्म-मत-मतान्तर के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर इससे लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य