हमउम्र साथी
बेटे ने दोपहर का एपॉइंटमेंट दिया था मिलने का पर शाम ही कर दी आते आते । प्रकाश जी ने अपनी घडी पर नज़र डाली जो साढ़े सात बजा रही थी।
“यस डैड, क्या बात करनी थी आपको?”
“बेटा, वो मैं!” शब्द जैसे गले में ही अटके रहे।
“क्या हुआ डैड? कुछ प्रॉब्लम?” बेटे ने थोड़ा घबरा के पूछा
“ बेटा, तेरी माँ के जाने के बाद बहुत अकेला हो गया हूँ मैं। खाली घर काटने को दौड़ता है।पहले गुड्डू के साथ खेलते खेलते दिन कट जाता था पर अब वो भी नही।” एक आह सी निकल गयी।
“ हां डैड, आप बोर हो जाते होंगे न ! बताइये मै क्या करूँ आपके लिए ? “
“ बेटा, पता चला है कि पास ही एक वृद्धाश्रम है जहाँ मेरे जैसे लोग आते हैं समय बिताने को ।”
“ नो डैड, कैसी बात कर रहे हैं आप? कुछ कहा क्या सोनाली ने आपसे ?”
“ नहीं बेटा, ऐसा कुछ नही ।”
“पर डैड, लोग क्या कहेंगे ? बेटा, अपने पिता को घर में नही रख पाया, जिम्मेदारी नही उठा पाया, बुढ़ापे में छोड़ दिया उसे वृद्धाश्रम में ?”
“नहीं बेटा, इसमें क्या बुराई है । गुड्डू भी तो हॉस्टल में रहकर पढ़ने गया है। कहने को तो लोग उसमें भी कहते ही होंगे ।”
“ पर डैड ?”
“ बेटा, वहां मुझे भी कुछ हमउम्र साथी मिल जायेंगे और फिर वीकेंड में जैसे तुम लोग गुड्डू से मिलने जाते हो वैसे ही मुझसे मिलने आ जाना। आओगे ना?” अबकी बार रुंधे गले से आवाज़ आयी ।
— ऊषा भदौरिया