कविता

अपने ही देश में मैं बार-बार मरा हूँ

मुझे तुमने देश की रक्षा का भार दिया है,

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मैं बन्दुक लिए सीमा पर खड़ा हूँ.
कोई दुश्मन तुम्हारी ओर ना ताके
मैं इस निश्चय पे अड़ा हूँ!
मगर तुमने तो पीछे से मुझे ही पत्थर मार दिए
मैं ही तुम्हारी रक्षा में तुम्हारी हाथो ही मरा हूँ.

अब समझ नहीं आता रक्षा तुम्हारी दुश्मन से करूं.
या खुद की तुमसे, मैं तो इस संशय में पड़ा हूँ.
ये देश मेरा और तुम्हारा है फिर क्यों ना,
इसकी खातिर लड़ूँ मैं,
मैं दुश्मनो से कम अपनों से ज्यादा मरा हूँ.

तुम कहो तो फेंक दूँ बन्दूक दुश्मन से सामने,
मगर क्या करूं मैं भी माँ भारती के दूध से पला हूँ.
ये द्रोह मुझसे ना होगा.
मैं अपने जीते जी माँ को गुलाम नहीं होने दूंगा,
तुम चाहे रोज पीछे से मुझे मारते रहो.
मगर मैं दुश्मन से तुम्हारी संधि कभी नहीं होने दूंगा.

दुश्मन मेरी गोली से सीमा पार मरेगा
मगर मैं जानता हूँ, जयचंदों में रोष इधर भी भरेगा.
आओ जरा मेरे पास मेरे देश में पल रहे देशद्रोहियों
दुश्मन के सामने खड़ा करता हूँ,
तुम्हे देखता हूँ कौन अपना कहेगा.

धर्मवीर सिंह पाल

फिल्म राइटर्स एसोसिएशन मुंबई के नियमित सदस्य, हिन्दी उपन्यास "आतंक के विरुद्ध युद्ध" के लेखक, Touching Star Films दिल्ली में लेखक और गीतकार के रूप में कार्यरत,