ग़ज़ल
आ जाइये हुजूर जरा फिर हिजाब में ।
ठहरी बुरी नजर है इसी माहताब में ।।
बच्चों की लाश पर है तमाशा जनाब का ।
औलाद खो रहे किसी खानाखराब में ।।
अंदाज आपके हैं बदलते अना के साथ ।
शायद कोई नशा है यहां इंकलाब में ।।
सत्ता मिली जो आपको चलने लगे हैं दौर ।
डूबे मिले हैं आप भी महंगी शराब में ।।
खामोशियों के बीच जफा फिर जवाँ हुई ।
आंखों ने अर्ज कर दिया लुब्बे लुआब में ।।
यूँ ही किया था जुर्म वो दौलत के नाम पर ।
दो गज जमीं हुई है मयस्सर हिसाब में ।।
पूछा वतन का हाल मियां खत को भेजकर।
आया न कोई खतभी अभी तक जबाब में।।
अफसर बिके हैं खूब यहां आंख बन्द है ।
धब्बा लगा रहा है कोई आफ़ताब में ।।
सारा यकीन ढह गया हालात देखकर ।
मिलने लगे हैं जुर्म भी अपने शबाब में ।।
रहबर तेरा गुनाह भी दुनियां को है पता ।
छुपता है देर तक नहीं चेहरा नकाब में ।।
उतरा है रंग आपका तीखे लगे सवाल ।
हड्डी मिली है आपको जब से कबाब में ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी