चैन की बंसी
पांडुरंग की शहर में सड़क के किनारे ही एक छोटी सी गन्ने का रस बेचने की दुकान थी । दो बेटे व एक बेटी के साथ ही कुल पांच लोगों का भरण पोषण व पढ़ाई लिखाई का खर्च पुरा करने में ही उसकी आमदनी का अधिकांश हिस्सा खर्च हो जाता । बचत के नाम पर दुकान के अलावा कुछ भी नहीं था । दोनों बड़े बेटों की दिलचस्पी पिता की दुकानदारी या व्यवसाय में नहीं थी । उनके रवैये से परेशान पांडुरंग ने दुकान बेचकर बेटी की शादी करके अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का मन बना लिया । उसके दूर के एक रिश्तेदार आज उसकी बेटी को देखने आए हुए थे । पांडुरंग बहुत खुश था । उनकी आवभगत में कोई कोरकसर न रह जाये इसलिए आज वह सुबह से ही घर पर था । दोपहर बाद मेहमानों को विदा करके पांडुरंग दुकान पर जा पहुंचा और सामने का दृश्य देखते ही वहीं गिर पड़ा । उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे । उसकी तहसनहस दुकान अपनी जगह से गायब थी । उसकी जगह दुकान का सारा सामान बिखरा पड़ा था । एक सरकारी बोर्ड लगा था work in progress … नगरपालिका का तोड़क दस्ता रास्ता प्रशस्तिकरण की मुहिम के अंतर्गत दुकानों की तोड़फोड़ करते हुए आगे बढ़ रहा था । पांडुरंग की दुकान से सटे हुए मुरली वाले अपने मंदिर में चेहरे पर मुस्कान लिए चैन की बंसी बजाते हुए इंसानी समझ पर मुस्कुरा रहे थे ।
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, कहानी अत्यंत मार्मिक और यथार्थवादी लगी. इसमें रिश्तों की दरक का दर्द भी झलक रहा है. जब घर के रिश्तों में दरक आती है, तो संगठन की शक्ति का ह्रास हो जाता है और दूसरे लोगों को उसका लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है. निर्लिप्त मुरलीवाले तो हर हाल में चैन की बंसी ही बजाकर हमको भी ऐसे ही रहने का संदेश देते रहते हैं अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आभार.
आदरणीय बहनजी !सही कहा आपने ! जब रिश्ते दरकने लगते हैं तो घर की सुख शांति खतरे में आ जाती है और नतीजा बुरा ही होता है जैसा पांडुरंग का हुआ । सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद ।
गरीबों के साथ तो बस भगवान् ही होता है, शेष तो किसी का घर जलने पर तमाशा ही देखा करते हैं .
बहुत सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद आदरणीय भाईसाहब !