लघुकथा- आत्मग्लानि
“चप्पल घिस गयी बेटा, एक लेते आना | मैं थक गया हूँ, अब सोऊंगा |”
“पापा! दो साल से प्रमोशन रुका पड़ा है | दे दीजिये न बाबू को हजार रूपये | आपकी फ़ाइल आगे बढ़ा देगा | बिना दाम के, कहीं काम होते हैं क्या? ”
“बेटा, गाढ़े की कमाई है, ऐसे कैसे दे दूँ? और कोई गलत काम भी तो नहीं करा रहा हूँ !”
“अच्छा पापा, इन बातों में एक बात बताना भूल ही गया |”
“क्या बेटा ?”
“सरकारी कॉलेज में मेरा एडमिशन हो गया है | लेकिन वहां का बाबू तीस हजार रूपये मांग रहा था |”
“काहे के तीस हजार…! ”
“वह कह रहा था कि मैं तुम्हारे ही फॉर्म को जमा करने में दिन भर लगा रहा | थोड़ा तो मेहनताना देना ही पड़ेगा न |”
“मैंने मना किया, कहा पापा बड़े ‘सिद्धांत वादी’ है|”
“फिर ..”
“हँसने लगा, और कहाँ कि बबुआ, पिता ‘सिद्धांत वादी’ है तब पढ़ना लिखना भूल ही जाओ | बिना दिए-लिए सरकारी कॉलेज में एडमिशन आसान नहीं है | जाओ, मूंगफली बेचो |”
“तुम्हारा तो हो गया है न !”
“हाँ, मैंने यही कहा उससे | उसने कईयों के नाम गिना दिए | कहा पिछले साल इन सबका भी हो गया था | लेकिन मिठाई का डिब्बा दिए बिना अधर में लटक गया |”
“अच्छा..!” लम्बी सांस छोड़ते हुए बोले |
“ठीक है, माँ से रूपये लेकर कल दे आना उसे |” ठंडी साँस छोड़ते हुए कहा |
“आपके उसूल !”
“मैं तो अपना वर्तमान उसूलों में उलझाये रहा | अब तुम्हारा भविष्य बर्बाद होते कैसे देख सकता हूँ | आजकल सिद्धांतो की रस्सी पर डगमगाए बिना चलना बहुत मुश्किल है |” बुदबुदाते हुए पलंग पर लेटे ही थे कि चिरनिद्रा ने उन्हें सम्मान पूर्वक आलिंगनबद्ध कर लिया|
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