वृद्धाश्रम पहुंचे एक दम्पति का दुख
ना जाने कितने सपनों को जोडा,
ना जाने कितने सपनों को तोडा,
तब जाकर एक आशियां बनाया था !
नन्हें कदमों से तुमने जब दस्तक दी थी,
तब एक सुंदर सज़ीला स्वप्न सजाया था !
वह स्वप्न था तुमसे जुडा हुआ,
बुढ़ापे का सहारा बन बेटा खडा हुआ !
जैसे हाथ थाम मैंने चलना सिखाया था,
वह था मेरे लड़खडाये कदमों को थामे हुआ !
भूल थी मेरी…
भटका हुआ था मैं …
जो समझ बैठा
बेटा है तो हर स्वप्न मेरा पूरा हुआ !
जिसके लिए अपनी ख्वाहिशों को अधूरा रखा,
देखा उसे किसी और का बना हुआ !
मां बाप हम पराये थे…
झूठे स्वप्न सराहे थे…
घर से निकल चुके थे…
वृद्धाश्रम के साये थे …
जिसे बडे होते देख मेरा सपना बडा हुआ ,
बुढापे में मैं था गैरों के बीच छोडा हुआ !
बीवी बच्चे इतने भा गये थे,
मां बाप घर से निकाले गये थे !
तब भी होंठों पर दुआ थी ,
खुशियां दूर तक विदा थी !
स्वप्न को लेकर जो आशियां सज़ा था ,
उसका मालिक बेघर हुआ था !
रिश्ता तोड मुन्ह मोड़ छोड़कर जाता हुआ ,
मेरा बेटा वृद्धाश्रम को मेरा घर बनाता हुआ !
— जयति जैन “नूतन”