“गीतिका”
आधार छंद- गंगोदक, मापनी- 212 212 212 212 212 212 212 212 (रगण x 8) पदांत- अती, समांत- रही,
आग लगती रही धुंध उडती रही, क्या हुआ क्या हुआ चींख जलती रही
अब जला दो मुझे या बुझा लो मुझे, पर हकीकत हवा है सुलगती रही
दाग दामन लगी है कहूँ अब किसे, भूलना इस बला को मुनासिब नहीं
यह महल है पुराना किसी और का, याद उसकी सजाकर मचलती रही।।
छोड़ जाना यहाँ से कहाँ कुछ कहो, दिल किसी से लगाना वफ़ा तो नही
हर हवेली नवेली कि अपनी अदा, बैठ चौखट पर अपने भटकती रही।।
दर्द तुमको हुआ आग लेकर चले, देखिए जल गई चाँदनी रात की
अब न आना कभी मन व्यथा को लिए, पीर पर की लिए वह तड़पती रही।।
क्यूँ जमाना जमाने से कहता नहीं, फूल कलियाँ खिले बाग डलियाँ नहीं
रोशनी के लिए घर जले तो नहीं, ले लटों की लपट वह बिलखती रहीं।।
इस दशा की दिशा जाने कैसी रही, किस गली से उड़ी राख बैठी रही
मान लेते सभी की ये गलती हुई, गर निभाते तो हालत पनपती नहीं।।
दृश्य किसका मिला ला यहाँ रख दिया, यार “गौतम” बहुत मनचला हो लिया
अब न लहरा रहा पग न पहरा रहा, नित खयालों में मछली उबलती रहीं।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी’