राजनीति

उपचुनावों में भाजपा की पराजय के सबक और संकेत

पूर्वोत्तर राज्यों की जीत का जश्न भाजपा ठीक से मना भी नहीं पायी थी कि उप्र के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा और उसके बाद बिहार के अररिया लोकसभा सहित विधानसभा उपचुनावों में भाजपा की पराजय ने रंग में भंग डाल दिया है। जैसे ही इन लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की पराजय की खबर टीवी चैनलों पर आनी शुरू हुई देश की राजनीति में भूचाल आना ही था। पूरे देशभर में मोदी-योगी विरोधी खुशी से झूम उठे। इन लोगों का खुशी से झूमना स्वाभाविक भी है। बहुत दिनों इन विरोधी दलों व नेताओं को जश्न मनाने का अवसर प्राप्त हुआ है।
पूर्वोत्तर में भाजपा की शानदार विजय के बाद सपा और बसपा को पसीना छूट रहा था। आनन-फानन में बुआ जी यानी बहिन मायावती का अपने भतीजे के प्रति दिल पसीजा और मोदी-योगी का विजय रथ रोकने के लिए भतीजे को अपना समर्थन दे दिया। बस भाजपा ने यहीं पर लापरवाही कर दी। प्रदेश के मुख्यमंत्री ठीक उसी समय कर्नाटक दौरे पर निकल लिये, जब गोरखपुर और फूलपुर में उनको पराजित करने के लिए विपक्ष की ओर से हर प्रकार से ताना बाना बुना जा रहा था। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री सहित बीजेपी के रणनीतिकारों ने इस महागठबंधन की बातों को हल्के में उड़ा दिया था, लेकिन आम जनता तथा पर्यवेक्षकों को इन सीटों पर खतरा स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा था।
भाजपा की पराजय और गठबंधन की जीत का जबर्दस्त तरीके से विश्लेषण किया जा रहा है। सोशल मीडिया और ट्विटर पर गोरखपुर की पराजय विशेष रूप से टेंªड कर रही है। चर्चा की जा रही है कि क्या मोदी और योगी की जोड़ी के अंत की शुरूआत हो चुकी है? तरह-तरह से मजाक बनाया जा रहा है तथा बीजेपी और योगी पर तंज कसे जा रहे है। जहां इस समय भाजपा समर्थकों व वोटरों का मनोबल अचानक गिर गया है और निराशा का वातावरण बन गया है, वहीं कुछ लोगों ने हार के कारणों व आगे उठाये जाने वाले कदमों पर मंथन भी शुरू कर दिया है। इन पराजयों से लोकसभा में भाजपा का अपना गणित भी बदल गया है। यह बात अलग है कि अब केंद्र सरकार फिलहाल अपना कार्यकाल पूरा करने की ओर बढ़ रही है। यही कारण है कि इस समय भाजपा की पराजय से विरोधी दलों व नेताओं के हौसले जबर्दस्त उछाल पर हैं। विरोधी दलों ने अब यह मान लिया है कि मोदी सरकार को एक धक्का और दो।
लेकिन अब विरोधी दल यहीं पर एक बार फिर गलती कर सकते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह एक ऐसे रणनीतिकार हैं, जो इतनी आसानी से अपना खेल बिगड़ने नहीं देंगे। अभी भी भाजपा के पास तरकश में कई तीर छिपे हुए हैं। यह बात अलग है कि अब भाजपा को 2019 के लिए निश्चय ही कठिन चुनौतियों का सामना करना है। 2019 अब बीजेपी के लिए कतई आसान नहीं होने वाला है। हर राज्य में कोई न महागठबंधन बनता दिखाई पड़ रहा है। सबसे बड़ी चुनौती पूरे हिंदी बेल्ट में तो होगी ही साथ ही आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे अन्य बड़े राज्यों में भी खतरे ही खतरे दिखाई पड़ रहे हैं। अब बीजेपी की असली अग्निपरीक्षा का दौर शुरू हो चुका है।
उप्र लोकसभा उपचुनावों में बीजेपी की पराजय के कई कारण बताये जा रहे हैं। लोकसभा, विधानसभा और नगर निगम तथा उसके बाद एकाध उपचुनावों में बीजेपी की जीत से चिंतित बसपा ने अपने सारे वोट सपा को दिला दिये, वहीं अन्य कई छोटे दलों ने अपने सारे वोट सपा को दे दिये। प्रदेश का मुस्लिम समाज पहले से ही योगी व मोदी को मजा चखाने के लिये बैचेन बैठा था। अब 2019 में भी मुस्लिम समाज व इन दलों के पास अपने जो परम्परागत वोटर हैं, वे सब मिलकर पूरी ताकत के साथ बीजेपी को परास्त करने की रणनीति बनायेंगे। इस समय हर जगह भाजपा की पराजय की ही चर्चा हो रही है तथा लोग कह रहे हैं कि अब क्या होगा? बीजेपी अपना खोया हुआ सम्मान कैसे वापस लायेगी? कई तरह के प्रश्न लोगों के दिमाग में घूम रहे है। बीजेपी जातियुद्ध का सामना किस प्रकार से करेगी? उप्र सरकार अपने लापरवाह और भ्रष्ट अफसरों व कर्मचारियों से कैसे निपटना शुरू करेगी? नाराज कार्यकर्ताओं को व जनता को कैसे खुश कर देगी कि जनता एक बार फिर उसकी ओर मुड़ जाये?
इन चुनावों के सबक और संकेत काफी गहरे ओर दूर तक जा रहे हैं। गोरखपुर हिंदुत्व की राजनीति का गढ़ माना जाता है। अयोध्या विवाद की शुरुआत के बाद तथा मठ समर्थित उम्मीदवारों के चलते बीजेपी यह सीट कभी नहीं हारी। यहां तक कि योगी जी लगातार पांच बार यहां से सांसद चुने गये। आखिर ऐसा क्या हो गया कि मात्र सप्ताह भर में ही सपा और बसपा गठबंधन ने यहां का इतिहास बदलकर रख दिया। आज हर, गली, नुक्कड़, दुकान, आफिस तथा घर-घर में गोरखपुर सीट की हार पर चर्चा व चिंता व्यक्त की जा रही है। आम जनमानस कम से कम यह तो कह रहा हे कि बीजेपी को कम से कम गोरखपुर लोकसभा का चुनाव नहीं हारना चाहिए था। लेकिन अब वह हार चुकी है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि को गहरा आघात तो लग ही चुका है। जब बीजेपी अपने एक साल का जश्न मनाने की पूरे जोर शोर से करने जा रही थी उस समय यह एक बड़ा आघात लगा है।
रामायण काल में जब मेघनाद ने अपने अस्त्र से लक्ष्मण को जिस प्रकार से मूर्छित कर दिया था यह समय कुछ वैसा ही प्रतीत हो रहा है। चुनावों के दौरान कुछ ऐसी घटनाएं घटीं वह भी पराजय का एक बड़ा कारण हो सकती हैं, जैसे- प्रदेश सरकार के मंत्री नंदी का बयान, लखनऊ में शराब की दुकानों की टेंडरिंग प्रक्रिया का फेल हो जाना, मुख्यमंत्री का चुनावी सरगर्मी के बीच प्रदेश व लखनऊ से बार-बार बाहर रहना, अतिआत्मविश्वास तथा घोर लापरवाही का होना, कार्यकर्ताओं का सम्मान न होना आदि। वर्तमान में भाजपा के अंदरखाने से जो हलचल पता चल रही है उससे पता चल रहा है कि प्रशासन की लापरवाही व अफसर भी बीजेपी की पराजय का एक बड़ा कारण हैं। कम मतदान भी कारण है। लेकिन सोशल मीडिया में एक और मजा चल रहा है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नोएडा जाने का एक बार फिर असर दिखायी पड़ गया, कहा था कि नोयडा मत जाओ। लेकिन वह चले गये अब परिणाम तीन माह बाद ही सामने आ गया है। लोगों का कहना है कि गोरखपुर में चाय का जायका इसलिए खराब हो गया क्योंकि शहर के अंदर कोई वोट देने गया ही नहीं बनिया, ब्राहमण और ठाकुर कुछ ज्यादा ही सुख सुविधा पा गये और योगी जी को भूल गये। बीजेपी के उम्मीदवार उम्मीद से ज्यादा ही आश्वस्त थे कि वे ही जीतेंगे। वे इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने जनता के बीच चुनाव प्रचार ही नहीं किया और वोटर भी घर से बाहर निकलवाने का प्रयास नहीं किया।
यहां के ग्रामीण युवा मतदाताओं का कहना है कि केंद्र में बीजेपी और राज्य में बीजेपी, लेकिन फिर भी युवाओं के लिए नौकरी व रोजगार नहीं मिला है। सरकारी नौकरियों व प्रशिक्षण तंत्र का जैसे अकाल पड़ गया है। युवाओं में सरकार से घोर निराशा है तथा बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने इन लोगों के बीच सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार भी नहीं किया। बीजेपी के नेता व कार्यकर्ता अपने मतदाता से मिल तक नहीं रहे। जनता से अहंकार के कारण संवाद समाप्त हो गया। वहीं इसके विपरीत विरोधी दल गोरखपुर मेडिकल कालेज में बच्चों की मौत को भुना ले गये। भाजपा का हिंदुत्व और विकास का एजेंडा धरा का धरा रह गया।
देश के बड़े राजनैतिक विश्लेषकोें को भी यह अनुमान नहीं था कि बीजेपी इतनी जल्दी गठबंधन से अपनी परम्परागत हिंदुत्व की जमीन वाली सीट गोरखपुर इतनी आसानी से हार जायेगी। यह भी पता चला है कि वहां के किसान एक नये प्रकार की समस्या से परेशान हो रहे हैं। वह यह है कि आवारा घूमने वाले गौवंशीय पशु किसानों के खेतों को चर रहे है। उनकी यह समस्या विकराल होती जा रही है लेकिन सरकार व बीजेपी कार्यकर्ता उनकी इस समस्या पर ध्यान नहीं दे रहे। यह भी कहा जा रहा है कि बीजेपी के कई पदाधिकारी बहुत घमंडी हो गये है। कुछ पैसा कमा रहे हैं तथा दलाली कर रहे हैं, वहीं जो ईमानदार कार्यकर्ता हैं उनकी वहां तक पहुंच ही नहीं हो पा रही है। यदि बीजेपी सरकार ने वाकई किसानों का कर्ज माफ किया होता तो आज पूरे प्रदेश में किसानों के बीच बीजेपी की लहर चल रही होती। प्रदेश सरकार ने योजनायें तो बहुत बना ली हैं तथा उनका ऐलान भी हो रहा है, लेकिन हर योजना किसी न किसी भ्रष्टाचार मे डूब रही है। चुनावों के दौरान ही सामूहिक विवाह योजना में धांधली की खबरें खूब चर्चा में रहीें।
लेकिन फिलहाल योगी जी के विजयपथ पर ब्रेक लग गया है। अश्वमेध के घोड़े को बुआ-भतीजे की जोड़ी ने बांध दिया है। अब यह लोग खुशी के मारे इतना अधिक उछल रहे हैं कि पूछो मत लेकिन यही खुशियां बुरे दिन भी अचानक से ही ले आती हैं। विरोधी दलों के लिए भी अभी चुनावी किला फतह करना इतना आसान नहीं होने जा रहा, भले ही अखिलेश और मायावती चाहे जितनी बैठकें कर लेें। सपा और बसपा के लिए 2019 में सभी सीटों पर गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरना आसान नहीं होने वाला। अभी सम्पूर्ण चुनावों में काफी समय है। पहले यह कयास लगाये जा रहे थे कि शायद पीएम मोदी व अमित शाह समय से पहले लोकसभा चुनाव करा लें लेकिन अब ऐसा नहीे होगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी- शाह ओर योगी की जोड़ी किस प्रकार से अपने घोड़े को छुड़वाने में कामयाब होते हैं।
यह चुनाव परिणाम सभी दलों के लिए गहरे सबक व संकेत दे गया है। जंग के दौरान कभी लापरवाह व अति आत्मविश्वास से भरपूर नहीं होना चाहिये शत्रु इसी प्रकार से वार की तैयारी में बैठा रहता हैं। सभी विरोधी दल मोदी व योगी को इसी प्रकार से आघात देने की तैयारी में लगातार लगे हुए थे जो कि अब हुआ है। अब बीजेपी को फिर से पूरी ताकत के साथ अपनी कमियों को दूर करते हुए बढ़े हुए मनोबल के साथ आगे बढ़ना होगा। यही बीजेपी के लिए चुनौती भरा संकेत है। बीजेपी के खिलाफ और अधिक साजिशें होंगी, बयानबाजियां होंगी। लेकिन बीजेपी को अपने वादों को पूरा करने तथा नाराज लोगों को फिर से मनाकर आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिये। बीजेपी को गलतियों से सबक लेकर चरैवेति-चरैवेति का सिद्धांत प्रतिपादित करना चाहिए। अभी बीजेपी के पास वापसी के लिए पर्याप्त समय है। वैसे भी बीजेपी के हर कार्यकर्ता को पीएम मोदी की तरह ही मेहनत करनी चाहिए, सब कुछ उन पर ही नहीें छोड़ देना चाहिए। हर चुनाव में वह उपलब्ध नहीं हो सकते।
एक टीवी चैनल पर चर्चा हो रही थी कि अभी तक जितने भी लोकसभा व विधानसभा उपचुनाव हुए उनमें किसी में भी पीएम मोदी व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव प्रचार नहीं किया। क्या इसी वजह से तो बीजेपी नहीं हार रही। यहां पर सबसे बड़ी बात यह है कि निचले स्तर के कार्यकर्ता व संगठन को इतना मजबूत होना चाहिए कि इन लोगों का सहारा ही न लेना पड़े। आखिर पीएम मोदी पर इतनी अधिक निर्भरता क्यों बढ़ती जा रही है? छोटे-छोटे चुनाव जीतने के लिए भी यदि बड़ी हस्तियों का सहारा लिया जायेगा तो निचले स्तर का संगठन मजबूत हो ही नहीं पायेगा और परिणाम भी इसी प्रकार से आयेंगे। अब बीजेपी के पास पर्याप्त समय है कि अपने संगठन को अभी से ही चाक चैबंद करना शुरू कर दे। तभी जातियुद्ध का मुकाबला हो सकेगा। साथ ही पाकिस्तान, राम मंदिर, धारा 370 जैसे अपने मुद्दों पर कुछ न कुछ अवश्य करना होगा।

मृत्युंजय दीक्षित