सामाजिक

लेख– यूं ख़ुशी के स्तर पर पिछड़ जाना, तो सवाल बनते हैं!

राजनीतिक पृष्ठभूमि दावा करती है, कि हम नित नए विकास के आयाम लिख रहें हैं। साथ में रहनुमाई व्यवस्था के आंकड़े ऐसे बयाँ किए जाते हैं, जैसे हम कितनी सीढ़ियां सामाजिक विकास की चढ़ चुके हैं। पर विकास किस दिशा में हुआ, इसका ज़िक्र हमारी सियासी व्यवस्था करना शायद उचित नहीं समझती। तो इस परिस्थिति में एक बात निर्वाद सत्य समझ आती है, कि हमनें विश्व परिदृश्य पर बहुआयामी विकास के तराने तराशे जरूर हैं, पर आम आदमी की ज़िंदगी में खुशहाली भरने में पिछड़ रहें हैं। वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में हम पिछले वर्ष की तुलना में 11 स्थान नीचे लुढ़क गए हैं। ऐसे में हमारे लिए सोचनीय बात यह नहीं होनी चाहिए, कि क्यों हमारे यहां प्रसन्नता का पैमाना लुढ़क गया है, बल्कि हम पाकिस्तान, श्रीलंका, भूटान औऱ बांग्लादेश से कमतर ख़ुशी के मामले में कैसे हो गए, विमर्श तो इस विषय पर होना चाहिए। आज हमारे देश में प्रसन्नता का स्तर गिर रहा। तो इसका सबसे बड़ा कारण सामाजिक विकास की कमज़ोर नीति रही है। जिसमें सबकों शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में हमारे देश का पिछड़ जाना है। पिछड़े तबक़े को मुख्यधारा तक लाने का सिर्फ़ राजनीतिक ढोंग भी प्रसन्नता को कम कर रहा। आज आज़ादी के विगत सत्तर वर्षों के लंबे लोकतांत्रिक शासन के बाद अगर समाज की बहुसंख्यक जनसंख्या मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रही, फ़िर देश प्रसन्नता की सूची में आगे कैसे आ सकता है? प्रसन्नता का पैमाना मापने की जो हालिया रिपोर्ट आई है। उसने अगर इस बात पर प्रहार किया है, कि आर्थिक विकास का मतलब सर्वसमाज का समावेशी विकास नहीं होता। तो इस रिपोर्ट ने साथ में रहनुमाई तंत्र की नीतियों को भी उज़ागर किया है, कि कैसे वह सिर्फ़ हवा-हवाई होकर रह जाती है। औऱ अंतिम पँक्ति में बैठा व्यक्ति सामाजिक कल्याण की नीतियों से वंचित रह जाता है।

2014 के बाद से देश के लोगों में प्रसन्नता का स्तर कम हो रहा, तो इसका मतलब साफ़ है, कि रहनुमाई व्यवस्था समावेशी विकास की दिशा में नहीं चल पा रहीं। अगर संयुक्त राष्ट्र संघ की हैप्पीनेस रिपोर्ट के अनुसार देश के लोग ज़्यादा हलकान और परेशान हैं। फ़िर केंद्र प्रयोजित सबका साथ और सबका विकास की योजना शायद ज़ोर भी नहीं पकड़ पा रहीं। साथ में रहनुमाई व्यवस्था की कार्य-प्रणाली समाज के अंतिम व्यक्ति को अपने विकास मॉडल से नहीं जोड़ पा रहीं। हो भी तो कैसे इन वर्षों के दौरान देश में दंगा-फ़साद, धार्मिक औऱ मज़हबी घटनाएं तो बढ़ी ही हैं। साथ में युवाओं को न रोजगार मिल रहा, न ही महंगाई पर लगाम लग पाया है। साथ में भुखमरी भी देश में भले बढ़ गई है। 2018 में अगर हमारा देश हैप्पीनेस इंडेक्स में 133 तक फिसल गया। इसका सीधा अर्थ तो यहीं है, कि देश एनडीए सरकार की नीति में विदेशी स्तर पर नीति निर्माण और सम्बंधों में भले तेज़ी दिख रही हो, लेकिन घर के भीतर की समस्याएं दूर नहीं कर पा रहीं। यह ज़रूर है, कि वर्तमान रहनुमाई व्यवस्था अवाम को ख़ुशी औऱ बेहतर जीवनशैली उपलब्ध कराने की दृढ़ इच्छाशक्ति रखती है। पर दुर्भाग्यवश औऱ रहनुमाई तंत्र की जल्दबाजी की वज़ह से न योजनाएं परिणामदायक साबित हो पा रहीं, औऱ न अवाम के जीवन में खुशियां घोलने लायक। जिस कारण रहनुमाई व्यवस्था द्वारा दिखाया गया अच्छे दिनों का सपना भी धूमिल होता जा रहा है।

खुशहाली के सर्वेक्षण में शामिल 156 देशों में भारत 133 वें स्थान पर इस वर्ष आया। जिसमें फिनलैंड औऱ नार्वे को क्रमशः पहला औऱ दूसरा स्थान प्राप्त हुआ। अगर इस ख़ुशहाली इंडेक्स के उन बिंदुओं का ज़िक्र करें, जिसपर यह रिपोर्ट तैयार होती है। तो उसमें सात बिंदुओं को शामिल किया जाता है। जिसमें रहनुमाई तंत्र की सामाजिक भागेदारी में हिस्सेदारी, जीडीपी में आम लोगों की हिस्सेदारी, स्वास्थ्य जीवन की प्रत्याशा। इसके अलावा अन्य मुद्दों में शामिल विषय आतंकवाद, समाज मे डर का माहौल, भ्रष्टाचार और उदारता जैसे विषय है। जिन विषयों पर देखा जाएं, तो हमारा देश कहीं न कही सच मे पिछड़ा हुआ है। लोगों को स्वास्थ्य जीवन उपलब्ध कराने में रहनुमाई व्यवस्था अपने आप को असमर्थ पा रहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत की परिकल्पना के साथ सत्ता में आई भाजपानीत की सरकार उस पर अंकुश लगाने में असमर्थ साबित हो रहीं। हमारी रहनुमाई व्यवस्था तत्काल में वैश्विक रिपोर्ट को नकार सकती है, पर जो सामाजिक औऱ आर्थिक परिवेश समाज में निर्मित होता जा रहा है, उससे नज़र चुराना अवाम को धोखा देने से कमतर नहीं। जिन योजनाओं के बलबूते पर अवाम को नई औऱ खुशहाल जिंदगी देने की बात 2014 में शुरू हुई थी, आज जैसे वो योजनाएं बिना ऑक्सीजन के वेंटिलेटर पर आ गई हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं। आखिर क्या हुआ मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं सांसद आदर्श ग्राम योजना, स्किल इंडिया के साथ मेक-इन इंडिया का। आज इनका नाम ही गुम हो रहा, सत्ता के सारथी के जुबां से औऱ रहनुमाई गलियारों से। अब तो सिर्फ़ 2019 को निगहबानी करते हुए रहनुमाई व्यवस्था चल रहीं। फ़िर ऐसे में सामाजिक व्यवस्था खुशहाली के मामले में हलकान औऱ परेशान तो होगी ही।

आज हमारा परिवेश स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीति, समाज औऱ डर के ऐसे माहौल में तीव्र गति से बढ़ रहा। जिसपर लगाम लगाने की दिशा में न बढ़ना चिंताजनक स्थिति निर्मित करती दिख रहीं है। आज समाज की स्थिति ऐसी होती जा रहीं है, कि यह कहना ग़लत न होगा कि कौन सा वर्ग परेशान नहीं है। युवाओं के लिए रोजगार नहीं, बढ़ते भ्रष्टाचार से बैंक व्यापारियों को लोन देने से घबरा रहें, मज़हबी समस्याएं बढ़ रही। फ़िर ख़ुशहाल समाज की परिकल्पना कैसे हो सकती है। जीएसटी को लेकर सरकारी तन्त्र की जल्दबाजी भी उपभोक्ता वर्ग के लिए समस्या बढ़ा रही है। जब 49 देशों में एक टैक्स स्लैब, 28 देशों में 2 टैक्स स्लैब हैं। तो एक देश औऱ एक टैक्स की बात करने वाले देश मे अगर 5 टैक्स स्लैब होंगे। तो समस्याएं खड़ी तो होंगी ही। रहनुमाई तंत्र की लोककल्याणकारी नीतियां औऱ जन हितार्थ की योजनाएं तो घिसी-पिटी हुई ही नज़र आ रहीं हैं, औऱ सरकार सिर्फ़ योजनाओं की घोषणा करके अपनी पीठ ठोक रही है। इससे बड़ी विडंबना की बात ओर क्या हो सकती है। हिंदू-मुस्लिम के नाम पर बढ़ता सामाजिक तनाव, स्वास्थ्य सेवाओं में लगातार पिछड़ना, औऱ ऐसे में सिर्फ़ रहनुमाई तंत्र विपक्ष मुक्त भारत की अपनी सोच को बढ़ावा देता रहेगा, फ़िर हमारा देश खुशहाल कैसे हो सकता है? आज चिकित्सीय व्यवस्था लचर ही नहीं, संसधानों औऱ प्रशिक्षण प्राप्त डॉक्टरों की कमी से जूझ रही।

बढ़ती बेरोजगारी उस आबादी में हताशा और निराशा घोल रही, जिसकी हिस्सेदारी आज के भारतीय समाज में लगभग 60 फ़ीसद है। फ़िर अगर सार्क देशों में अफगानिस्तान को छोड़कर भारत सबसे पीछे है, तो यह अतिश्योक्ति नहीं कहा जाना चाहिए। अब समय तो अच्छे दिन लाने वाली सरकार को यह सोचने का है, कि ऐसी विकट स्थिति कैसे दूर हो। नहीं तो आने वाला समय वर्तमान रहनुमाई तंत्र को सत्ता से बेदखल होने का कारण भी हो सकती है। इस रिपोर्ट का निहितार्थ अगर विभिन्न देशों को आईना दिखाना है, कि उनकी नीतियां किस स्तर तक अवाम की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए हैं, तो क्या अब सरकार इस रिपोर्ट से कुछ सबक लेगी, या सिर्फ़ कांग्रेस मुक्त भारत की बात ही दोहराती रहेगी। हैप्पीनेस इंडेक्स भले यह विरोधाभास उत्पन्न करता हो, कि जब अन्य रेटिंग एजेंसी भारत की तारीफ़ अर्थव्यवस्था के स्तर पर कर रहीं हैं, तो फ़िर ख़ुशी के स्तर पर कैसे हम पिछड़ रहे। तो यहां एक बात यह समझने लायक है, कि अगर देश मे विकास हो रहा है, तो वह नीचे से ऊपर के स्तर पर नहीं।

यह विकास सिर्फ़ ऊपरी स्तर पर हो रहा। जिसका निचले स्तर से कोई तालुकात नहीं। फ़िर समाज ख़ुशी कैसे हो सकता है। आज जो विकास हो रहा, वह विकसित लोगों को ही ओर विकसित बना रहा। यह विभिन्न रिपोर्ट भी बयाँ करती आ रही हैं। भुखमरी का स्तर बढ़ा है। रोजगार के स्थान पर बेरोजगारी अपने चरम पर पहुँच रहीं है। सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर अध्ययन के वक़्त विकास के सारे मुद्दे व्यर्थ ही साबित साबित होते हैं। विकास की हवा निचले तबके की जनता तक पहुचाने के लिए शायद अब ग़रीबी रेखा की नहीं अमिरियत की रेखा बनानी होगी। अगर हम बात हमारे देश का ख़ुशी के वैश्विक पैमाने पर पिछड़ जाने का करें, तो इसके अपने कई कारण है, और हो भी सकता है। पर इससे इस बात को नकारा नहीं जा सकता, कि हमारे देश की सामाजिक नीतियों में झोल नहीं है। आज के परिवेश को देखकर कहे कि सरकारी तंत्र सिर्फ़ दावे में समाज में व्याप्त मुफ़लिसी दूर कर रहा, उसके पास इसके लिए कोई सार्थक नीति औऱ कार्ययोजना नहीं, तो यह अतिश्योक्ति नहीं हो सकता। अगर हैप्पीनेस इंडेक्स की बात करें, तो इसके पैमाने भारत जैसे बड़े देशों के लिए सही नहीं, क्योंकि जो देश हैप्पीनेस इंडेक्स में शीर्ष पर हैं। उनकी संरचना अलग है औऱ हमारे देश की अलग। शीर्ष पर काबिज़ देशों में संसाधनों पर जनसंख्या का दबाव नहीं है। तो एक कारण यह भारत के लिहाज़ से फीट नहीं बैठता। लेकिन इसका मतलब तो यह नहीं, कि इस बात से इंकार कर दिया जाए की हमारे देश में सामाजिक समरसता की खाई नहीं व्याप्त है।

आज अगर फिनलैंड ख़ुशी के मामले में विश्व में पहले स्थान पर है, तो वहां तक पहुंचने के लिए उसने सार्थक क़दम भी उठाए हैं। आज फिनलैंड में बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा औऱ स्वास्थ्य की बेहतरीब व्यवस्था है। वही हमारा देश स्वच्छ पानी औऱ दो वक्त की रोटी का इंतजाम अभी तक नहीं कर पाया है। फिनलैंड में स्वास्थ्य सुविधाएं मुफ़्त हैं, तो हमारे देश की राजधानी स्वच्छ हवा के लिए मोहताज है, औऱ चिकित्सा तंत्र किस स्थिति में है। यह बताने में ख़ुद को शर्म आती है। इसके अलावा अगर बात भ्रष्टाचार औऱ अन्य सामाजिक बुराइयों की हो तो वह घटने के बजाय तेज़ी से फ़ैल रही। आज अगर हमारा देश ख़ुशी के पैमाने पर वैश्विक परिदृश्य पर पिछड़ रहा, इसका मतलब साफ़ है, यह संसाधनों की कमी की वज़ह से है। तो इसकव लिए सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर सरकारें क्यों पिछड़ रहीं, इसका अध्ययन होना चाहिए। क्योंकि जब तक करोडों की बहुसंख्यक जनसंख्या बुनियादी सुविधाओं के लिए मोहताज रहेंगी, तो फ़िर समाज प्रसन्नता के शिखर पर कैसे होगा। अगर भारत को रहनुमाई व्यवस्था वैश्विक स्तर पर ख़ुश देखना चाहती है, तो समावेशित विकास की नीतियों में बदलाव कर नई नीतियां बनानी होगी, जिसमें सिर्फ़ नाम के लिए सब लोग सम्मिलित न हो, बल्कि सबको अपना और अपने परिवार का विकास करने का स्वस्थ अवसर प्राप्त हो। तभी ख़ुशी का स्वस्थ माहौल समाज मे निर्मित किया जा सकता है, साथ में जनसंख्या नियंत्रण की कठोर नीति भी लागू की जाए। तब हम हैप्पीनेस इंडेक्स में पहले स्थान पर पहुँच सकते हैं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896