सामाजिक

लेख– जल नहीं तो कल नहीं

हर वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। जो वर्ष 1993 से अनवरत चला आ रहा है। जिसका उद्देश्य विश्व के सभी विकसित देशों में स्वच्छ एवं सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना होता है। इस वर्ष जल दिवस की थीम “जल के लिए प्रकृति के आधार पर समाधान” है। पृथ्वी पर मानव जीवन ही क्या किसी भी प्राणी के अस्तित्व की पहली प्राथमिकता और मूलभूत जरूरत है, पानी। पानी इस धरा के जीव-जंतुओं की बुनियादी आवश्यकता है, तभी इसे मानवाधिकार का दर्जा भी प्रदान किया जाता है। इसके बाद भी एक अनुमानित आँकड़े के मुताबिक विश्व की लगभग 1.5 अरब की आबादी के पास शुद्ध पेयजलापूर्ति उपलब्ध नहीं। फ़िर अंदाजा सहज तरीक़े से लगाया जा सकता है, कि जीवनदायनी बूंद-बूंद के लिए दर-दर भटकते लोग अपना जीवनयापन कैसे करते होंगे। इन दृश्यों को देखने, महसूस करने के बावजूद भी अगर मानव समाज के साथ रहनुमाई व्यवस्था जल संरक्षण के प्रति सज़ग नहीं। तो इसका सीधा सा अर्थ है, सामाजिक उत्तरदायित्व, सहयोग औऱ समर्पण की भावना को मानव समाज ने शायद तिलांजलि दे दिया है।

जिन लोगों के पास पानी की समस्या से निपटने के लिए कारगर उपाय नहीं है। उनके लिए मुसीबतें हर वक्त मुंह खोले खड़ी रहती हैं। कभी बीमारियों का संकट तो कभी जल का अकाल, एक शहरी के लिए क्या। ग्रामीण क्षेत्र के लिए भी धीरे-धीरे स्थिति यही उत्पन्न होती जा रही। ऐसे में आने वाले वक्त में तमाम पानी से जुड़ी अन्य समस्याओं से भी हमारा समाज रूबरू होगा। अगर अभी सचेत नहीं हुआ तो। आज के दौर में ऐसा भी नहीं है कि हम पानी की समस्या से जीत नहीं सकते, क्योंकि जब एक भगीरथ गंगा रूपी अथाह जलराशि को जमीं पर स्वर्ग से लाने का पराक्रम कर सकता है। तो क्या हमारा समाज सामूहिक रूप से भगीरथ बनकर जल समस्या का निराकरण नहीं कर सकता। हो सकता है, अगर सही ढ़ंग से पानी का सरंक्षण किया जाए। सिर्फ़ अपने अंदर की इच्छाशक्ति को जगाने की देरी मानव समाज को है। अगर हम पानी की बर्बादी को रोक लेंगे, तो पानी से जुड़ी अन्य समस्या का समाधान भी मिल जाएगा। आज अवाम की बेरुखी औऱ सामाजिक कर्तव्यों से हमारा समाज कन्नी काट रहा है, तभी देश में सालाना लाखों लोगों की मौत दूषित पानी और पानी न मय्यसर होने की वज़ह से हो रही।

दूषित पानी पीने से लोग अपनी जान तो गंवाते हैं, साथ में उससे अर्थव्यवस्था को भी करोड़ो-अरबों रुपए का चूना लगता है। आज भारत के परिदृश्य में दूषित जल और पानी कमी पर निगहबानी करेंगे। तो पाएंगे, कि पिछड़े राज्यों जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा औऱ उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड के कई हिस्से लगातार अखबारों की सुर्खियां बनते है, कि यहां के आमलोग दूषित जल के सहारे जीवन यापन करने को मजबूर हैं। या फ़िर पीने के लिए पानी नहीं है, औऱ है भी तो किलोमीटर तक पैदल यात्रा भी करनी पड़ती है। तो ये समस्याएं कोई तत्काल उपजी नहीं। इसके उत्पन्न होने की लंबी कहानी है। भारत में पानी की कमी ज्यादातर जनसंख्या वृद्धि और जल संसाधनों के कुप्रबन्ध के कारण उत्पन्न हुई है । इसके अलावा शहरों में होने वाले विकास और कंक्रीटीकरण ने भी जलसंकट को बढ़ावा दिया है। साथ साथ हमारे देश में सिंचाई के लिए पानी का अकुशल इस्तेमाल होता है। दुनिया में, हम कृषि उत्पादन में शीर्ष स्थान पर है। जिस कारण सिंचाई की परंपरागत तकनीक, वाष्पीकरण, जल का रिसना, जल वाहक और भूजल के अधिक उपयोग के कारण अधिकतम पानी हमारे देश में व्यर्थ जाता है।

ऐसे में बात अगर स्वच्छ पानी न उपलब्ध होने के अन्य कारणों की करें, तो बातें अपने-आप स्पष्ट होती हैं। जब प्रकृति औऱ पर्यावरण की छाती को छलनी लगातार किया जाता रहेगा। तो फ़िर स्वच्छ पानी की उम्मीद लगाकर बैठना मुनासिब नहीं समझ आता। पानी में घुलती अशुद्धि का बड़ा कारण खेती-किसानी के दौरान रासायनिक खादों का उपयोग औऱ समाज में बढ़ता औद्योगिक कचरा और गंदगी है। जो पीने योग्य पानी की उपलब्धता को कम कर रहा है। आज हमारे देश के कुछ हिस्सों में पानी की किल्लत है, तो कुछ शहर ऐसे भी हैं। जहां पानी विदेशी नगरों की तुलना में अधिक है। जैसे यूरोप के महानगर एम्सटरडम से अधिक पानी अपनी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में है। हमसे कहीं अधिक जनसंख्या का दबाव चीन पर है। फ़िर भी हमसे लगभग 28 फ़ीसद पानी एक आंकड़े के मुताबिक कम ख़र्च चीन हमारे देश से करता है। फ़िर देश पानी को लेकर दोहरी विसंगति से जूझ रहा। शहरी विकास मंत्रालय के मुताबिक देश के 32 बड़े शहरों में से 22 गहरे जल संकट से जूझ रहें हैं। जिनमें सबसे बद्दतर स्थितियां कानपुर, आसनसोल, धनबाद, मेरठ और विशाखापत्तनम जैसे शहरों की है। अब अगर इन शहरों की वर्तमान स्थिति का जायज़ ले, तो आज के वक्त में ये हमारे देश के ऐसे शहर हैं। जहां पर पहले से कल-कारख़ाने और संयंत्र लगे हुए हैं, और तेज़ी से उद्योग-धंधे अभी भी स्थापित ही हो रहें हैं। ऐसे में पानी की कमी इन शहरों में होना स्वाभाविक बात है।

अब अगर मांग के अनुसार पानी की कमी देश मे देखी जाएं, तो उपर्युक्त जिन शहरों का उल्लेख किया गया है। वहां पर 30 फ़ीसद पानी की कमी है, तो वहीं दिल्ली में 24 फ़ीसद औऱ मुंबई में 17 फ़ीसद कम जलापूर्ति मांग के अनुरूप हो रही। पर राजस्थान जैसे राज्य की हालत तो दिनोदिन पतली होती जा रहीं, क्योंकि एक अनुमान के मुताबिक वहां पर उपलब्ध जल का मात्र 10 फ़ीसद हिस्सा ही स्वच्छ जल के अंतर्गत आता है। जबकि 90 फ़ीसद पानी खारा है। जिसमें से 55 फ़ीसद पानी में तो फ्लोराइड की मात्रा काफ़ी अधिक है। तो आज के दौर में पानी की कमी औऱ दूषित होते पानी के कारणों पर शोध करें, तब पता चलेगा, आज़ादी के दरमियान देश में पानी की उपलब्धता सामान्य थी। 1970 के दशक से देश में पानी की समस्या शुरू हुई। जिसका सामान्य कारक बना जनसंख्या में तीव्र गति से बढोत्तरी, पानी वितरण का उचित प्रबंधन न होना इसके अलावा पानी वितरण की पाइप-लाइनों में लीकेज। वर्तमान तो पानी की किल्लत में व्यतीत हो ही रहा, अब हम बात भविष्य की बात करें। तो 2050 तक भारत की आबादी विश्व में सबसे ज़्यादा औऱ लगभग 170 करोड़ हो जाने की संभावना है। इसके साथ जिस तेज़ गति से उदारीकरण औऱ वैश्विकरण के साथ निजीकरण की नीतियों पर देश अग्रसर हो रहा। इससे मध्यवर्ग की संपन्नता भी बढ़ेगी। जब आदमी सम्पन्न होता है, तो उसकी सुविधाओं में भी बढोत्तरी होती है। ऐसे में यह वर्ग अच्छा खाने की तरफ़ आकर्षित होगा। तो अच्छी फ़सल उगाने के लिए ज़्यादा पानी की आवश्यकता भी होगी।

फ़िर मार दोतरफ़ा पड़ेगी। तो आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय समस्या के साथ राजनीतिक संकट भी देश के सामने विकराल रूप धारण करेगा। अगर ऐसे भविष्य की भविष्यवाणी अभी से की जा रहीं। फ़िर जल संरक्षण की दिशा में बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाने वाली रहनुमाई व्यवस्था बढ़ती क्यों नहीं नजऱ आती। क्या व्यवस्था उस दिन का इंतजार कर रही, जब देश पानी की बूंद के लिए आंतरिक रूप से कटने-मरने को तैयार हो जाएगा। जिस देश में मॉनसून बिगड़ती लोगों की दिनचर्या औऱ पर्यावरण के प्रति बेरूखी के कारण हर वर्ष धोखा दे रहा। इसके साथ अधिकांश हिस्सा जलसंकट की चपेट में आ रहा। तो देश की रहनुमाई व्यवस्था को जल संरक्षण का उपाय अपने स्तर पर करने के साथ देश की अवाम को पुचकार कर औऱ भय दिखाकर करवाना चाहिए। पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य तो देखिए आज जल के बढ़ रहे संकट के लिये भूमि जल की तेज निकासी ही जिम्मेदार नहीं है। इसके साथ ही जल प्रबंधन की राजनीतिक अवहेलना भी जिम्मेदार है, क्योंकि आज जमीन के ऊपर जो पानी है उसकी हालत तो बहुत खराब है ही। और जमीन के भीतर का पानी भी सुर​क्षित नहीं है। जमीन के भीतर के पानी के नियमन के लिये केंद्र सरकार के चार विभाग हैं। पर दुखद बात तो यही है कि किसी के पास ताजा हालात के आंकड़े नहीं हैं, कि कितना जल संरक्षण इन चारों विभागों ने कर रखा है।

ऐसे में बीती बातों को भूलकर अब जल संरक्षण के प्रति सज़ग बनाना होगा, क्योंकि किसी भी मुल्क के आर्थिक, पर्यावरणीय औऱ सामाजिक स्वास्थ्य को तय करने का कार्य वहां पर उपलब्ध जल संसाधन ही करता है। खेतों की सिंचाई ड्रिप और फव्वारा तकनीक के माध्यम से करने का बढ़ावा रहनुमाई तंत्र को देना चाहिए। साथ में कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी आदि चालू सरकारों को करना चाहिए। साथ ही साथ घर के छत पर गिरने वाले जल को संरक्षित करना उन सभी के लिए अनिवार्य किया जाए। जो नवनिर्माण कार्य कर रहें हो। साथ में जिसके पास पहले से पक्का घर उपलब्ध है, उनको भी जल संरक्षण के लिए सरकारी मदद एकबार देकर जल संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाए। जैसे लड़कियों के जन्म लेने पर प्रोत्साहन राशि सरकारे प्रदान करती हैं। भारत में पानी की कमी का कारण नदियों और तालाबों में रसायनों और अपशिष्ट पदार्थों का बहना भी है। इसको कम करने के लिए सरकार, एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा सख्त निगरानी और कड़े कानून के कार्यान्वयन की जरूरत भी आज के दौर में महसूस की जा रहीं है। सड़कें औऱ उद्योग-धंधे सरकारे विकसित करें। लेकिन पर्यावरण और जल संरक्षण को भूल कर नहीं, क्योंकि अगर आर्थिक विकास का वाहक कल-कारख़ाने औऱ सडके है, तो सामाजिक औऱ आर्थिक स्वास्थ्य का वाहक पानी भी है। यह रहनुमाई तंत्र के साथ सामाजिक तंत्र को भी याद रखना होगा। नहीं एक दिन की सजगता से जल संरक्षण नहीं हो सकता।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896