लेख– पर्यावरण संरक्षण क्यों देश का चुनावी मुद्दा नहीं बनता!
कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिस पर लोकतांत्रिक व्यवस्था विचार-विमर्श करने का समय नहीं निकाल पाती। यह सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात है। पर्यावरण संरक्षण वर्तमान दौर की सबसे महती ज़रूरत बनता जा रहा। पर हमारे रहनुमाओं को कुर्सी के आगे कुछ शायद दिखता ही नहीं। संसद में आपसी तू-तू, मैं-मैं ऐसे होती है। जैसे देश के लगभग 131 करोड़ लोगों की जिम्मेदारी उनके ऊपर न हो। आज हमारी संसद जिस तरह से चल रही। तो उसे अगर सास-बहू की साज़िश का अड्डा कह दिया जाएं। तो यह अतिश्योक्ति नहीं। रोटी, कपड़ा और मकान अगर मानवीय जीवन की मूलभूत ज़रूरत है। तो बेहतर और स्वच्छ वातावरण भी नैसर्गिक जरूरत समाज के लिए है। आने वाली पीढ़ी के लिए जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के बढ़ते खतरे को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण हमारे लिए एक अहम मुद्दा है। पर बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हमारी सरकारों और संबद्ध विभागों में लापरवाही का आलम इतना अधिक है, कि इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार फ़टकार लगाने के बाद भी सरकारी तंत्र के कानों पर जूं नहीं रेंगती। वैसे अगर हम अपने जीवन में पेड़- पौधे और पर्यावरण के महत्व को देखें, तो इसका व्यापक फ़ैलाव है। इसके बगैर जीवन की कल्पना करना सिर्फ़ ख़्याली पुलाव ही साबित हो सकता है। ऐसा माना जाता है, कि एक पेड़ से इतनी छाया प्राप्त होती है। जो पांच एयर कंडीशनर बीस घंटे लगातार चलने पर दे पाते हैं। फ़िर हमारा समाज अगर आधुनिकता की आड़ में पेड़ों को कटने से तत्काल बाज नहीं आया, तो समस्याएं बढ़ना लाजिमी है। अगर वैज्ञानिक अध्ययन यह प्रमाणित करते हैं, कि सिर्फ़ और सिर्फ़ 93 घन मीटर में लगा वन आठ डेसीबल ध्वनि प्रदूषण को दूर करता है और एक हेक्टेयर में लगा वन बीस कारों द्वारा पैदा कार्बन डाईआक्साइड और धुएं को अवशोषित करता है। फ़िर वन किस तरह हमारे जीवन को सुगम और सरल बनाता है। यह किसी गहन शोध का विषय नहीं। वनों का अधिक होना मानव जीवन को सरलता और सुगमता ही नहीं प्रदान करता, बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान की दृष्टि से भी वन संपदा का विस्तृत क्षेत्र होना समय की मांग बन चुका है।
ऐसे में अगर भारत उन चुनिंदा देशों में शुमार है। जो जैव विविधता से परिपूर्ण हैं, और जैव विविधता में समृद्ध होने के बावजूद अपने वन आवरण के रूप में देश की तस्वीर काफी चिंताजनक है। साथ में राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार भू-भाग का तैंतीस फीसद हिस्सा वनों से आच्छादित होने के बजाय भारतीय वन सर्वेक्षण 2017 की रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान दौर में देश का मात्र 21.54 प्रतिशत भाग वन आच्छादित क्षेत्र है। तो यह शिक्षित और आधुनिक होते समाज की उस कड़ी को रेखांकित करता है, जहां पर मानव समाज अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सज़ग दिखता है। पर वहीं संवैधानिक कर्तव्यों को भूल जाता है। जहां पर ज़िक्र है, कि वन संपदा आदि का संरक्षण करना समाज के लोगों का फ़र्ज़ है। वर्तमान दौर में भारतीय वन सर्वेक्षण 2017 की रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल भाग का सात लाख वर्ग किलोमीटर वनों से आच्छादित है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में वन और वृक्षावरण की स्थिति में 2015 की तुलना में 8021 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। इसमें 6,778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि वन क्षेत्रों में हुई है, जबकि वृक्षावरण क्षेत्र में 1243 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। तो यह बताता है, कि बीते कुछ वर्षों में समाज और सरकारें पर्यावरण को संरक्षित करने की दिशा में उन्मुख हुई हैं। पर शायद यह प्राप्त प्रयास नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अगर पर्यावरण संरक्षण के प्रति हमारी व्यवस्था पूर्णतया सज़ग होती। तो बीते दिनों एक सुनवाई के दौरान नाराज खंडपीठ यह न कहती कि विधायिका अदालत को बेवकूफ बना रही है और पर्यावरण संरक्षण के लिए जमा की गई राशि को अन्य मदों में खर्च किया जा रहा है।
यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और आने वाली पीढ़ी के साथ खिलवाड़ नहीं तो क्या है, कि एक तरफ़ पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। वहीं सियासी व्यवस्था पर्यावरण संरक्षण के लिए जमा धन का उपयोग सड़कें बनाने, बस स्टैंडों की मरम्मत और कॉलेजों में प्रयोगशालाएं स्थापित करने जैसे कामों में कर रहीं हैं। स्वच्छ हवा और बेहतर पर्यावरणीय संरचना मानव जीवन की पहली प्राथमिकता है। सड़कें आदि बाद की आवश्यकताएं है। तो फ़िर सरकारें सिर्फ़ सड़क आदि बनवा कर आज के दौर में अपनी पीठ जरूर थपथपा सकती है। पर आज का यह पीठ थपथपाना भविष्य के लिए चिंताजनक स्थिति उत्पन्न करेगा। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी के मुताबिक बीता वर्ष 167 वर्षों में तीसरा सबसे गर्म वर्ष रहा। यह रिपोर्ट काफ़ी कुछ सवाल ख़ड़े करती है, कि आख़िर हम समय पर नहीं चेते, तो यह धरती हमारे रहने लायक नहीं बचेंगी। जिसका कारण घटते पेड़-पौधे ही हैं। आज हमारे देश में हर व्यक्ति के हिस्से में सिर्फ़ 24 पेड़ ही बचे है। ऐसे में सिर्फ़ रेफ्रिजरेटर, गाड़ियों के चलन को कम करके ही तापमान को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उसके लिए अन्य उपाय भी करने होंगे। पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों में हवा, पानी, मिट्टी, खनिज, ईंधन, पौधे और पशु-पक्षी शामिल हैं। इन संसाधनों की देखभाल करना और इनका सीमित उपयोग करके ही प्रकृति का संरक्षण किया जा सकता है। और आने वाली पीढ़ी को सुंदर प्राकृतिक परिवेश दे सकते हैं, लेकिन वर्तमान दौर में विकास की अंधी दौड़ में इनके संरक्षण के प्रति न रहनुमाई व्यवस्था सज़ग दिख रही। न लोग ही इसके प्रति वफादार समझ में आ रहें।
जिस कारण कहीं तापमान में तीव्र वृद्धि, कहीं मूसलाधार बारिश और कहीं जलजला आ रहा है। इस चराचर जगत में हर वस्तु की अहमियत है, इस लिए इस धरा पर हर उस वस्तु के प्रति सामंजस्य बनाकर चलना होगा, जो जीवन के लिए उपयोगी है, क्योंकि प्रकृति, संसाधन और पर्यावरण हमारे जीवन और अस्तित्व का आधार हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता की उन्नति ने हमारे ग्रह के प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत बुरा असर डाला है। अगर वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट कहती है, कि देश में प्रति घण्टे 206 लोगों की मौत दूषित हवा के कारण हो रही। 73 लोग देश में प्रति घण्टे स्वच्छ पानी ने मिलने के कारण मौत को गले लगा रहे। इसके अलावा अगर संयुक्त राष्ट्र की खाद्य और कृषि संगठन की एक रिपोर्ट कहती है, कि हमारे देश में रोपे जाने वाले पौधे में से 35 फ़ीसद बढ़ नहीं पाते, तो यह चिंताजनक स्थिति तो अभी से निर्मित हो गई है, फ़िर भविष्य कैसा होगा। इसका सहज आंकलन किया जा सकता है। जंगल की कटाई का मुख्य कारण खेती के लिए वन की कटाई, डूब क्षेत्र के लोगों को बचाने के लिए, शहरों का विस्तार , हाईवे प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने औऱ वैध-अवैध माइनिंग है। सरकारी आंकड़ों की मानें, तो बीते तीन दशकों में करीब 24 हजार औद्योगिक, रक्षा और जल-विद्युत परियोजनाओं के कारण 14 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र का सफाया देश में हो चुका है। इसके अलावा 15 हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र अतिक्रमण के कारण नष्ट हुआ है। और वर्तमान में सिर्फ़ देश के 21.54 फीसद हिस्से में वन बचे हैं।
अब ऐसे में अगर करीब 250 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को हर वर्ष अन्य गतिविधियों के लिए दे दिया जाता है। ऐसी स्थिति को यदि नदियों के प्रदूषण, प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते कहर, जल एवं वायु प्रदूषण, ऊर्जा की बढ़ती खपत जैसी समस्याओं के साथ जोड़कर देखें, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि पर्यावरण की रक्षा आज के दौर में कितनी आवश्यक हो चली है। पर हमारी सरकारें तो मेगा सिटी और स्मार्ट सिटी के निर्माण और सड़कों के निर्माण को ही विकास की परिभाषा मान चुकी हैं। ऐसे में अगर पर्यावरण संरक्षण के लिए सर्वोच्च न्यायालय बार-बार सरकार को डांट लगा रहा, तो इस अधूरी विकास की परिभाषा से परे होकर भी रहनुमाई व्यवस्था को देखना चाहिए, और पर्यावरण संरक्षण की मद में जमा रकम का समुचित उपयोग पर्यावरण को बचाने मात्र के लिए होना चाहिए, वरना आगामी वर्षों में स्थिति एकदम अनियंत्रित हो जाएगी। समाज को भी समझना होगा, सिर्फ़ सड़क और सुख सुविधाओं में वृद्धि खुशी का पैमाना नहीं हो सकता। अगर पर्यावरण विकराल रूप ले लिया तो। ऐसे में विकास की अपेक्षाओं को पूरा करने और अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ पर्यावरण पर ध्यान देना भी हमारी प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। यह देश और समाज के साथ रहनुमाई व्यवस्था को भी समझना होगा। नहीं तो आर्थिक विकास और समृद्धि की आकांक्षाएं फलीभूत न हो सकेंगी, और आने वाले समय में मानव जीवन ख़तरे में पड़ जाएगा। तो क्या आशा की जाएं, सरकारें आगे से पर्यावरण संरक्षण की मद को किसी अन्य मद पर ख़र्च नहीं करेंगी, और समाज और व्यवस्था मिलकर पर्यावरण को बचाने की दिशा में कार्य करेंगी!