गीत
अनवरत पथ पे सदियों से चलता रहा।
मुझको मंजिल कोई भी ना हासिल हुई।
लडखडा कर रुके जब भी मेरे कदम।
ऐसा लगता था मंजिल मुझे मिल गई।
मैं गुजरता रहा भीड़ को चीरकर।
मैं अकेला चला ओर अकेला रहा।
गर खुशी मिल गई कोई खुश्बू भरी।
ना उत्सव मना गम का मेला रहा।
मैं अकेला रहा हूँ पर तन्हा नहीं।
साथ यादों का भरपूर रेला रहा।
भाव आंखों से आंसू से बहते गए।
पत्थरों से गले जब पवन मिल गई।
अनवरत पथ पे सदियों से चलता रहा।
मुझको मंजिल कोई भी ना हासिल हुई।
लड़खड़ा कर रुके जब भी मेरे कदम।
ऐसा लगता था मंजिल मुझे मिल गई।
सिर्फ सपनों में उडता रहा रात भर।
होंसले की उड़ानें मैं भर ना सका।
बेवजह सा भटकता रहा ये जहाँ।
लक्ष्य कोई भी निश्चित मैं कर ना सका।
स्वयं के हित हमेशा ही जीता रहा।
दुःख भी दूर अपनों के कर ना सका।
मैं माली था सम्मुख ही तोडा गया।
फूल भी ना बनी जो कली खिल गई।
अनवरत पथ पे सदियों से चलता रहा।
मुझको मंजिल कोई भी ना हासिल हुई।
लडखडा कर रुके जब भी मेरे कदम।
ऐसा लगता था मंजिल मुझे मिल गई।।
— यादवेन्दर याद