गीतिका/ग़ज़ल

“गज़ल”

काफ़िया- आ स्वर, रदीफ़- रह गया शायद

जुर्म को नजरों से छुपाता रह गया शायद

व्यर्थ का आईना दिखाता रह गया शायद

सहलाते रह गया काले तिल को अपने

नगीना है सबको बताता रह गया शायद॥

धीरे-धीरे घिरती गई छाया पसरी उसकी

दर्द बदन सिर खुजाता रह गया शायद॥

छोटी सी दाग जब नासूर बन गई माना

मर्ज गैर मलहम लगाता रह गया शायद॥

लोग कहते हैं जमाने की नजर गुमराह है

था मर्म बेपरवाह जिलाता रह गया शायद॥

झूठ के शृंगार को सतरूप कहाँ देखता

रौनक हवा सी उड़ी देखता रह गया शायद॥

गौतम तेरे विश्वास को विश्वास ने चाहा बहुत

टूटने की चीज को तू जोड़ता रह गया शायद॥

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ