आत्मघात (लघुकथा)
अब्दुल बहुत दिनों बाद घाटी में अपने घर आया था | उसने चारों तरफ देखा, घर में उसकी बूढी अन्धी दादीजान के अलावा कोई न दिखा | वह अन्दर- बाहर, पड़ोस में भी देख आया, “आखिर सब कहाँ गए? ” उसने अपनी दादीजान से पूछा |
“अभी-अभी आया है, पहले कुछ खा ले | देख तो, रसोई के डिब्बे में रोटियाँ पड़ी होंगी, खा ले पहले |”
रसोई में रोटी खाते हुए भी उसको कुछ अनहोनी का एहसास हो रहा था | जैसे-तैसे उसने रोटी निगली और हाथ धोकर फिर अपनी दादीजान के पास आकर उसने वही प्रश्न दोहराया |
” तू अब तक कहाँ था अब्दुल, इस बार तो बहुत समय लगा दिया घर लौटने में | कहाँ रहा बेटा? “
अब्दुल ने अपना बैग खोला और उसमें से उसने कुछ नोट निकालकर दादी के हाथ में रखते हुए बोला, “दादीजान ! तेरा पोता पैसा कमाने गया था शहर में, कुछ बड़ा काम मिल गया था | अब तेरा पोता एक बड़ा आदमी बन गया है दादीजान…”
“अच्छा! ऐसा क्या काम करता है बेटा तू ?”
“दादीजान, मैं …. वो … वो…|” कहते हुए वह हकला रहा था |
“क्या वो … वो… लगा रखी है, कुछ बोलता क्यों नहीं | तू क्या सोचता है, मुझे पता नहीं कि तू आतंकवादी गिरोह में शामिल हो गया है | मुझे सब पता है | वो है न तेरा दोस्त हशमत, वह पिछले हफ्ते मिला था | उसने मुझे सब-कुछ बता दिया है |”
“हशमत ! अरे, उसको कैसे पता चला…. अरे हाँ, उसने एक दिन मुझे शहर में बम के साथ देख लिया था | पर दादीजान घर के लोग कहाँ गए ? अम्मी, अब्बाजान, शन्नो और भूरी सब कहाँ हैं दादीजान…..?”
“क्या करेगा जानकर…पर पूछ ही रहा है तो सुन… एक अब्दुल और आया था अपने गाँव में | जिस तरह तू दूसरे शहर में बम गिराता है उसी तरह उसमे भी इस गाँव में एक बम गिराया था और उसमें …|”
“क्या… ! तो क्या और लोग भी …?”
“हाँ, गाँव के बहुत लोग मारे गए…. पर मैं बदनसीब अब भी जिन्दा हूँ | सुन, तो तू पैसे तो लाया है बहुत सारे, पर क्या एक बम भी रखा है तेरे पास ? गर है तो गिरा दे मुझ पर ताकि मैं भी …|”
अब्दुल कभी अपनी दादीजान को, कभी अपनी बैग में पड़े नोटों को और कभी घर की दीवार पर टंगे आईने में खुद को देख रहा था… उसका चेहरा विकृत हो रहा था |
रोता हुआ वह बाहर की तरफ भागा तो चिनारों में आग लगी हुई थी | *
— कल्पना भट्ट