सामाजिक

किसके लिए

धीमे और आराम चलती हुई बस गाड़ी की गति एकदम बदल जाती है। शाम को तीन बजे के लगभग, जाम जमने का समय तो नहीं। खड़ी दूप खिड़की से सीधे घुसकर पहुँचानेवाली गर्मी पसीनों की धाराएँ बहा रही है, तिसपर अचानक लगी जाम चालक का साथ देने लगता है। यात्री पल-ब-पल कुछ उत्तेजित होने लगते हैं। पाँच मिनट लगा तो नहीं, यात्रियों का सहना घटने लगता है। कोई बैठे हुए इधर-उधर मुड़ता तो कोई उचकता। कोई खिड़की से झाँकता तो, कोई अपने आसन से उठकर निहारता। परस्पर की पूछताछ। सब सड़क पर बेवक्त लगे जाम की वजह की जाँच-पड़ताल में लग जाते हैं।
अब मेरा सहन भी कुछ घट जाता है, खिड़की से झाँकने लगता, फिर यहाँ-वहाँ देखने लगता। बस के अंदर की काना-फ़ूसी में जो जिज्ञासा होती है, मैं भी अब उसकी शिकारी बन चुका हूँ। हाँ, मेरा अंदाज़ा भी वही है, जैसे अन्य यात्रियों से लेकर चालक तथा कंडक्टर का भी है। दुर्घटना।
जाम में, एक सरकारी गाड़ी के अंदर, गरमी तथा धूल मिली हवा के कारण मुझमें उपजती ऊब से बचने के लिए मैं अपना दूरभाष पतलून के जेब से निकालता हूँ कि मेरा कान दूर से आता धीमा अस्पष्ट शोर में जा अटकता है। सामूहिकता भरा, एक साथ उठता, पल भर का मौन, फिर उठता। मौन ने शोर को दो हिस्सों में बाँट दिया है। मैं दिल्ली पहुँच गया।
धीरे-धीरे बस आगे बढ़ती है, तो शोर निकट सुनने लगता है। अब शोर स्पष्ट है, उसमें मिली सब ध्वनियाँ साफ़-साफ़ सुनाई देती हैं।
“अपार दुख-दर्द झेले हुए, हज़ारों उम्मीदों के साथ माँ-बाप अपनी औलाद यहाँ इसलिए भेजते हैं कि अपना बेटा शिक्षित और बुद्धिमान निकले, लेकिन ये देश की मरम्मत करने जा रहे हैं। देखो, आज इनकी वजह समय कितने बरबाद हो रहे हैं?”
सामनेवाले आसन पर जो अधेड़ उमरवाला व्यक्ति बैठा है, वह हमउम्र-सी अपनी बगलवाली की बातों पर हाँ में हाँ मिलाता है।
“जेवीपी वाले, (जेवीपी – श्री लंका का एक वामपंथी राजनीतिक दल) क्रांति का नाम लेकर देश का भविष्य रास्ते पर ला, खुद अपने उद्देश्य पूरा कर रहे हैं।”
दायीं कलाइयों पर और माथों पर काली पट्टियाँ, ऊपर उठे तख्ते, बायें हाथों पर कागज़। मुट्ठी बँधे दायें हाथ दो हिस्सों में बँटकर उठते शोर के साथ उठते हैं। मैं उनके निरीक्षण में लग जाता हूँ। चार के पीछे चार, एक लंबी-सी कतार, कुछ जवान कतार से बाहर जगह-जगह झुंड बनाकर कतार का नेतृत्व कर रहे हैं। कतार के बीचोबीच जगह-जगह बड़े कैनवस पोस्टर। इसी एक पोस्टर पर बड़े अक्षरों में लिखे एह शब्द पर मेरी आँखें जा टिकती हैं।
उनका आज का नारा था सइटम ।(सइटम – श्री लंका में स्थापित किया गया एक निजी विश्वविध्यालय, जिसके द्वारा चिकित्सा उपाधि पैसे जमाकर पायी जा सकती है। इससे पहले श्री लंका में चिकित्सा उपाधि केवल निःशुल्क पायी जा सकती थी।)
“आज नर्सरी से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा निजीकरण हो चुकी है, अंतर्राष्ट्रीय स्कूल हर शहर में बस गये हैं बल्कि सरकारी विश्वविद्यालय भी बाह्य उपाधि मुफ़्त में तोड़े ही दिया करते हैं?”
“और हाँ, आज ये लोग चिकित्सा उपाधि के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन कल डॉक्टर बनकर निजी अस्पतालों में जा बैठते हैं, तब तक ये नारे, विप्लव सब गायब।”
सामनेवाले आसन की बातचीत फिर आगे बढ़ने लगती है। उनकी बातों को सुनते-सुनते मेरी याद पुरानी दो घटनाओं का स्मरण करती है।
कुछ समय पहले हमारे डाक्टरों के संघों ने जुटकर सरकार से अपनी औलाद के लिए लोकप्रिय विद्यालयों की माँग की और अपने वेतन के बढ़ाव का नारा लेकर हड़तालें भी कीं। दूसरा, एक स्कूल की बच्ची और उद्घोषक का एक टी. वी. कार्यक्रम पर होनेवाला संवाद।
“अपने जीवन का सबसे बड़ा मकसद क्या है?”
“डाक्टर बनाना”
“हममम… अब वह सपना देख रही है?”
“पढ़ना है, मेहनत करनी है और जागते रहना है, इन सब की याद आती है, तो मुश्किलता का बोझ उठता है, मगर… उसके बाद, पाँच साल बीत जाने पर जब गाड़ी मिल जाती है, तो हाँ का चैन पाती हूँ।”
“अरे…. गाड़ी भी मिलती है?”
“गाड़ी का परमिट तो मिलता है।”
“अरे बापरे…. बचपन से ही परमिट लेने की सोच में…” कहीं राजनेता भी ऐसे तो नहीं!
“अब तो गाड़ी नहीं है, इसलिए गाड़ी लेनी है। मिलनेवाले परमिट से गाड़ी खरीदूँगी। गाड़ी में बैठकर चलूँगी, तो हर कोई जान जाएगा कि एक डाक्टर जा रहा है, क्योंकि गाड़ी पर लगाया जाता है न। नहीं तो कौन जानेगा कि मैं डाक्टर हूँ।”
उन दो स्मरणों के साथ मैं अपने विचारों में डूब जाता हूँ। निःशुल्क शिक्षा और शिक्षा का निजीकरण। निःशुल्क शिक्षा एक मानव अधिकार है और उसकी रक्षा करना मानव का परम दायित्व है। वह दायित्व आज शिक्षा के निजीकरण के किलफ़ केवल सइटम का नारा ले, रास्ते पर उतरा है।
जिन्होंने निःशुल्क चिकित्सा उपाधि पायी है, वे अपने वेतन का बढ़ाव और अपनी संतान के लिए लोकप्रिय स्कूल माँग रहे हैं और जो निःशुल्क चिकित्सा उपाधि पाने आ रहे हैं, उनकी दिमाग मिलनेवाले गाड़ी-परमिट की ओर है। मरीजों की शिकायतें दिन-ब-दिन बढ़ती जाती हैं और आज ये छात्र रास्ते पर ‘सइटम’ का नारा लेकर लड़ रहे हैं। यह किसके लिए?
इन सभी बातों पर ध्यान देने के बाद मुझमें यही शंका पैदा होती है कि सचमुच ये विद्यार्थी चिकित्सा के हैं? चिकित्सा के हैं, तो इनके इस नारे का उद्देश्य निःशुल्क शिक्षा ही है?