कविता – मन की गहराई
कविता – मन की गहराई
मन के अंदर की उथल पुथल
कोई बाहर वाला क्या समझेगा
कब किस वक़्त क्या महसूस हो
कैसे कोई जानेगा ।
राज़ छुपे हैं कैसे-कैसे
पसन्द ना हो कांटे जैसे
मन की पीड़ा स्वयं पता हो
एहसासों की भरी लता हो
दुनिया जाने दुनियादारी
मन से हारी, मन को मारी
कभी शोर तो, कभी मूक सा
मन के किस्से छुपे हुए हैं
कैसे कोई पहचानेगा
कब किस वक़्त क्या महसूस हो
कैसे कोई जानेगा ।
उसकी आंखों में झांको तो
एक तस्वीर दिखाई देती हैं
धुंधली सी ओझल सी
एक प्रीत दिखाई देती है
मन ना समझ लेना इसे
मन छुपा है भीतर तन में
हजारों किस्से छुपे हुए से
खामोशी की चीखें सारीं
कोई बाहर वाला क्या समझेगा
कब किस वक़्त क्या महसूस हो
कैसे कोई जानेगा ।
— जयति जैन “नूतन” —