गजल
दूर चला जा ,ऐ मौसम ! शहनाई का ।
फिर से मैं दीदार करूँ तन्हाई का ।
नव बसंत! आगमन तुम्हारा मंगल हो,
क्या लाये हो समय मेरी तरुणाई का ?
कोयल, भौरें , मदन, तुम्हें भाते होंगे ,
मैं कैसे विश्वास करूँ हरजाई का ?
तुम मेरे भावों को मान नही देते,
मैं कैसे सम्मान करूँ दुखदाई का ?
तुम छोटी सी बात निभाना भूल गये,
क्या अचार डालूँ तेरी गुरुताई का ?
हाय “गंजरहा” त्याग तुम्हारा सस्ता है,
दौर चला ऐसा शक की मँहगाई का ।
-© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी “गंजरहा”
१४/३/१९ प्रयागराज