सामाजिकस्वास्थ्य

शिशु के लिये अपनी माता का दूध सर्वोत्तम पोषणयुक्त आहार है

ओ३म्

यह संसार परमात्मा ने सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म जड़ प्रकृति से इससे पूर्व बनाये संसार के अनुरूप बनाया है। संसार में एक ईश्वर सहित जीवात्माओं तथा प्रकृति का अस्तित्व है। यह तीनों सत्तायें अनादि व नित्य हैं और इसी कारण यह अनन्त, अविनाशी एवं अमर भी हैं। परमात्मा ने जीवात्मा को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख प्रदान करने अर्थात् न्याय देने के लिये यह संसार बनाया व वही इसका पालन व संचालन कर रहा है। संसार में अधिकांश प्राणियों का जन्म माता-पिता के द्वारा होता है। शिशु अवस्था में बच्चे अपनी अपनी माता का दुग्ध पान कर ही पोषण प्राप्त करते हैं। हम देखते हैं कि गाय का बच्चा अपनी माता का दुग्ध पीता है। जब तक वह चारा व घास आदि खाने योग्य नहीं हो जाता, प्राकृतिक रूप से गाय दूध देती रहती है। चारा खाने के लिये पशुओं के मुह में दांतों की भी आवश्यकता होती है। कुत्ता, बिल्ली, बकरी व मनुष्य सभी में ऐसा ही व्यवहार देखने को मिलता है। अपनी माता का दुग्ध पीकर शिशु बड़े होते हैं और जब उनके दांत निकल आते हैं तो वह अन्न आदि पदार्थों को ग्रहण करने लगते हैं। ऐसा होने पर परमात्मा की व्यवस्था से माता का दुग्ध बनना स्वमेव बन्द हो जाता है। इससे यही प्रतीत होता है कि प्रत्येक माता का कर्तव्य है कि वह अपने शिशुओं को अपना दुग्ध अवश्य पिलाये।

आज का युग आधुनिक युग है। नगरों में लोग आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं। चिकित्सा विज्ञान के वैज्ञानिकों ने भी अनेक प्रकार की दवाओं का निर्माण करने के साथ शिशु आहार के रूप में कृत्रिम दुग्ध का निर्माण किया है। वह अपनी बिक्री बढ़ाकर लाभ प्राप्त करने के लिये लोगों को उसका सेवन करने के लिये प्रेरित करते हैं। अनेक कारणों से मातायें भी इसको उचित समझती हैं। कुछ कार्यरत महिलायें होती हैं जिन्हें दिन में घर से बाहर जाना पड़ता है। अपने छोटे शिशुओं को उनके लिए अपने साथ ले जाना सम्भव नहीं होता। इस कारण उन्हें मां के दूध का विकल्प ढूंढना पड़ता है। ऐसी स्थिति में कृत्रि.म पाउडर का दुग्ध भी एक उपाय होता है। कुछ वर्ष पहले जब यह दूध नहीं होता था तो मातायें देशी गाय अथवा बकरी का दूध अपने बच्चों को पिलाती थीं। बकरी का दूध भी अनेक गुणों से युक्त होता है ऐसा लोग मानते हैं। कुछ परिस्थितियों में यदि माता का प्रसव समय से पूर्व हो जाये तो ऐसे माता-पिता कुछ दशक पूर्व अपनी सन्तानों को प्रायः बकरी का दूध पिलाया करते थे। दूसरा विकल्प देशी गाय का दूध होता है। तीसरे विकल्प में अन्य माताओं का भी दूध पिलाया जा सकता है यदि वह उपलब्ध हो सकता है। ऋषि दयानन्द ने धायी का दूध पिलाने का विधान किया है। उन्होंने इसके कारण भी बतायें हैं जो कि तर्क संगत एवं उचित हैंं। पौराणिकों न इसका विरोध किया था जिसका सटीक उत्तर आर्य विद्वान पं0 बुद्धदेव मीरपुरी जी ने दिया था। यह उत्तर उनके प्रणीत लघु-ग्रन्थ ‘‘पं0 बुद्धदेव मीरपुरी सर्वस्व” में उपलब्घ है जिसे पाठक पढ़ सकते हैं। दूध अपनी माता का हो या धायी का, सर्वोत्तम गुणों से युक्त व अनुकूल होने से यही शिशुओं के लिये लाभप्रद है। कृत्रिम दूध पिलाने से बच्चों को बाद में मोटापा व अन्य अनेक रोगों आदि समस्याओं से जुझना पड़ सकता है परन्तु तब चिड़िया चुग गई खेत की कहावत चरितार्थ होती हैं। तब माता-पिता के पास इसका कोई विकल्प नहीं होता। अतः माता-पिता को अपने विवेक से निर्णय करने के साथ वृद्ध आयुर्वेदाचार्यों से अवश्य परामर्श लेना चाहिये। अंग्रेजी चिकित्सक भी अब यह कहने लगे हैं कि माता का दूध ही उसके शिशु के लिये सर्वोत्तम गुणों वाला होता है और यह बात ठीक भी है।

महाभारत में एक प्रसंग आता है। राज्य पर अधिकार के लिये कौरव व पाण्डवों में युद्ध होना तय हो गया तो कुन्ती ने अपने पुत्रों को युद्ध के लिये भेजते हुए कहा था कि क्षत्राणी जिस दिन के लिये सन्तान को जन्म देती हैं व उन्हें अपना दूध पिलाती है, उस दूध का कर्ज चुकाने का अब समय आ गया है। यह बात ठीक ही लगती है। माता का सन्तान को दस मास तक अपनी कोख में रखना, उसे जन्म देने में प्रसव पीड़ा को सहन करना, सन्तान को कई महीनों तक दूध पिलाना, पालना व शिक्षित करना आदि कारणों से सन्तानों पर पितृ ऋण चढ़ता है जिसे कोई भी सन्तान अपने माता-पिता की कितनी भी सेवा कर ले, हमारा अनुमान है कि कभी उस ऋण को चुका नहीं सकती। आज देश की युवा पीढ़ी पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है। वैदिक संस्कृति को अधिकांशतः भुला दिया गया है। अब माता-पिता को अपनी सन्तानों से जो सम्मान मिलना चाहिये तथा सन्तानों को उनकी जिस प्रकार से सेवा करनी चाहिये, वह अनेक परिस्थितियों में होती हुई दिखाई नहीं देती। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि माता-पिता में से किसी एक या दोनों का देहावसान हो गया, उस समय उनकी सन्तानें न तो उनकी चिकित्सा के लिये उनके पास थी और न ही मृत्यु के बाद उनकी अन्त्येष्टि करने ही पहुंच पायीं। इस प्रकार की घटनाओं ने मानवता को कलंकित किया है। इसका समाधान पुनः वैदिक धर्म व संस्कृति को अपनाकर व उसका पालन करके ही किया जा सकता है। समाज मत-मतान्तरों में बंटा हुआ है। हिन्दू समाज में भी सम्पन्न व निर्धन दो वर्ग मुख्य हैं। सम्पन्न वर्ग से कोई सही बात मनवाना भी कठिन लगता है। इस कारण समाज में अनेक प्रकार की अप्रिय व दुःखद घटनायें देखने व सुनने को मिलती हैं जो कि नहीं होनी चाहिये।

हम अपने अध्ययन के आधार पर समझते हैं कि माता-पिता का दायित्व है कि वह वेदों की आज्ञाओं का पालन करें। परमात्मा ने शिशु जन्म के साथ माताओं को जो दुग्ध पिलाने का उपहार दिया है वह इस बात का प्रमाण है कि मातायें अपनी सन्तानों को अपना दुग्ध पिलायें। शिशुओें के लिये उससे उत्तम खाद्य व द्रवमय पोषण पदार्थ संसार में दूसरा नहीं हो सकता। अन्य सभी पशु आदि प्राणी भी इस प्राकृतिक नियम का पूरा पूरा पालन करते हैं। मनुष्य तो बुद्धि से युक्त होने के कारण उनसे अधिक विज्ञ है। अतः उससे अपेक्षा की जाती है कि वह अवश्य इस प्राकृतिक नियम का पालन करें जिससे भविष्य में उसे किसी प्रकार का पछतावा न हो।

हमने जो अध्ययन किया है उससे हमें यह लगता है कि माता के दूध के साथ उसके शिशु में माता के गुण, कर्म व स्वभाव भी संचरित होते हैं। इसका कारण यह है कि माता का दूध उसके आहार से बनता है जिसमें उसके शरीर के अनेक अंग व प्रत्यंग सहयोगी होते हैं। प्रसव पाल के बार भारतीय परम्परा में माता को अनेक पौष्टिक पदार्थ खिलाये जाते हैं जिसका प्रभाव निश्चय ही माता के दूध में भी आता है। अतः माता का दूध पीने से उसकी सन्तान का रूप, रंग, गुण, कर्म व स्वभाव माता के समान होने की सम्भावना होती है। बाजारी पाउण्डर का दूध पीने से सन्तान को यह लाभ नहीं होता। इस दृष्टि से हमें लगता है कि वृहत्तर लाभों के लिये सन्तानों को यदि अपनी माता का ही दूध मिले तो यह सन्तान के भावी जीवन, स्वास्थ्य व आयु सहित उसकी बुद्धि के निर्माण व उत्कृष्टता के लिये अत्यन्त उपयेगी होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि शिशु का शरीर अपनी माता के खाये अन्न व भोजन सहित उसके शरीर के अंगों के सहयोग से बनता है। ऐसा ही माता का दूध होता है जो सन्तान के लिये सभी दृष्टि से उपयोगी व लाभप्रद होता है।

इतिहास में हनुमान एवं भीम के नाम आते हैं। इनकी शारीरिक क्षमतायें अन्य मनुष्यों से कहीं अधिक थी। इसका एक कारण इनकी माताओं का इन्हे दुग्ध पान कराना भी माना जा सकता है। हम समझते हैं कि जब तकयह सृष्टि रहेगी, समझदार माता-पिता इस प्राकृतिक नियम का अवश्य पालन करते रहेंगे। इस विषय पर अधिक लिखना विज्ञ जनों के लिये उचित नहीं है। अपनी पुणे यात्रा में एक वरिष्ठ विद्वान से कुछ चर्चा के प्रसंग में हमें इसका उल्लेख करना पड़ा था। हमारे मन में इसका विचार आया जिसका पालन हमने किया है। हम आशा करते हैं कि इससे पाठकों को लाभ होगा। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य