अगर तेरा नूरानी हुश्न चुरा सकता मैं
अगर तेरा नूरानी हुश्न चुरा सकता मैं
इक और ताजमहल बना सकता मैं
कुछ उलझी लटों को तुम्हारी सँवार के
इस जमीन पे भी चाँद खिला सकता मैं
जहाँ ठहर जाती पल भर को भी तुम
जहाँ को खूबसूरत ज़माना दिखा सकता मैं
कुछ नज़ाकत लेके तुम्हारे अदाओं की
शान्त दरिया में भी तूफाँ उठा सकता मैं
ये मसीहाई है या फिर कोई जादूगरी
तुम्हारा होके दो जहाँ भी भुला सकता मैं
— सलिल सरोज