दरवाजे पर दस्तक
मन में दुःख की बदली
घुमड़ जाती
यादें आँखों से आँसू बन
बरस जाती
विदाई को जैसे आँखों को
रुलाने का प्रमाण -पत्र मिला हो
घर -आँगन की तस्वीरों में
कैद यादें
रह -रहकर हमें रुलाती है
जब याद अपनों की आती है
दरवाजे पर दस्तक
भले ही हवाओं ने दी हो
बावले मन को पग- पग
दौड़ा जाती है
विदाई और यादों की
राजदार नहीं होती है आँखे
क्योंकि ये दुःख दर्द की
वेदना को पचा नहीं पाती
ये आँखे बिना कहे बता जाती
इनके रिश्तों को
बनके आँसू।
— संजय वर्मा “दृष्टि “