सांसों का जंगल
तन सांसों के जंगल में भटक रहा
मन महक रहा बनकर कस्तूरी
जिसके जितने पास गये हैं
मिली है उससे उतनी ही दूरी
अपने पराये सब दूर हो गये
होगी उनकी भी कोई मजबूरी
गमों से अपनी अब बनने लगी है
या खुशियों से हो गई है अब दूरी
भोर सुहानी कबसे ना हुई है
कबसे हुई ना शाम मेरी सिन्दूरी
कब तन ना प्रेम में घायल हुआ है
कब हुआ ना मन इश्क़ में मगरूरी
चंचल मन पात समान है डोला
तन का तड़पना भी हुआ जरूरी
जब जब तन को छू गुजरे पवन
तब तब मन में चलने लगती छूरी
— आरती त्रिपाठी