कविता

आशाओं के सेतू

# आशाओं के सेतू

साथी ! चल मिलकर बाँधेंगे
आशाओं के सेतू …

तू व्यर्थ अकिंचन रोता है
क्युँ साहस धीरज खोता है
क्या रहा असंभव जग में जो
हठ से संभव ना होता है

हम साधन बल से हीन सही
किन्तु उद्यम से क्षीण नहीं
यह अविरल गंगा साक्षी है
पौरुष विधि के आधीन नहीं

उत्साही जब चल पड़ते हैं
मरूथल में निर्झर झरते हैं
बाधाओं की आशंका से
कह बढ़ते पग कब डरते हैं

दुर्लभ को लभ कर लाएँगे
दुष्कर को सुगम बनाएँगे
अपने निज श्रम सेतू चढ़कर
हम पार क्षितिज तक जाएँगे

कर प्रयाण , चल कदम उठा
अब निराश किस हेतु
साथी ! चल मिलकर बाँधेंगे
आशाओं के सेतू …

समर नाथ मिश्र