धर्म-संस्कृति-अध्यात्मसामाजिक

देश काल तथा परिस्थितियों में स्वयं को ढालना मनुष्य का कर्तव्य

ओ३म्

मनुष्य अपने पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों का फल भोगने, विद्या प्राप्ति तथा ईश्वर प्राप्ति की साधना द्वारा आत्मा की उन्नति करने के लिए ईश्वर से संसार में जन्म पाता है। हम संसार में आने के बाद अनेक प्रलोभनों में फंस जाते हैं और अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। जन्म के बाद के आरम्भ के अनेक वर्ष शैशवावस्था में शरीर के विकास में लगते हैं। उसके बाद शरीर की उन्नति सहित हमें ज्ञान-विज्ञान व विद्याओं का अर्जन करना होता है। महाभारत काल से पूर्व अधिकांश मनुष्य परा व अपरा विद्याओं जिसे आजकल की भाषा में आध्यात्मिक एवं सांसारिक ज्ञान कह सकते हैं, इसकी प्राप्ति में लगाते थे। आजकल आध्यात्मिक ज्ञान संसार व इसमें प्रचलित मत-मतान्तरों सहित स्कूल व कालेजों की पढ़ाई से दूर हो गया है। यह परा विद्या वा आध्यात्मिक ज्ञान आजकल आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म एवं इसकी शिक्षाओं से युक्त ग्रन्थों ईश्वरीय ज्ञान वेद सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, 6 दर्शनों, 11 उपनिषदों तथा विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों के प्रति संसार में भ्रम सहित पक्षपात तथा अतार्किक विरोध का वातावरण बना हुआ है। माता-पिता तथा स्कूलों के शिक्षक व आचार्य भौतिक सुखों के दास बन गये हैं जिससे वह धर्म व संस्कृति के आचरण से दूर हो गये हैं। आजकल धर्म व संस्कृति की हितकारी बातें भी विदेशी व विधर्मी तो क्या, अपने समाज के अनेक बन्धु व पारिवारिक जन भी पसन्द नहीं करते। माता-पिता अपने किशोर तथा युवा सन्तानों को वेद व सत्यार्थप्रकाश की उनकी हितकारी बातों को उन्हें समझा पाने तथा मनवाने में असफल रहते हैं। यह बात हमें 80-90 प्रतिशत ठीक लगती है। सर्वत्र विलासिता, स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति व सेवन, निरर्थक घूमना-फिरना, शरीर की सुन्दरता व वेश-भूषा-परिधान के चयन व प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने, चलचित्र देखने सहित धनोपार्जन तक ही मनुष्य जाति का ध्यान केन्द्रित हो गया है। ऐसी स्थिति में वेद एवं सद्ज्ञान की रक्षा करना वैदिक धर्मियों वा आर्यसमाज के लिये एक कठिन चुनौती बन गई है। इससे बाहर निकल पाना व परिस्थितियों पर विजय पाना असम्भव सा प्रतीत होता है। जो भी हो, जिन को वैदिक धर्म व संस्कृति से प्रेम है उनका यह कर्तव्य है कि वह यथासम्भव धर्म व संस्कृति की रक्षा व प्रचार के कार्य करते रहें। शेष परमात्मा पर छोड़ा जा सकता है। वह भी कुछ करेंगे और वेद, धर्म और संस्कृति की रक्षा व प्रचार का कोई नया उपाय समाज में उत्पन्न हो जाये, इसकी आशा करनी चाहिये।

वर्तमान परिस्थितियों में में मनुष्य का जीवन विश्वव्यापी महामारी रोग कोरोना के कारण अस्त व्यस्त व पूरी तरह से अव्यवस्थित हो गया है। विगत तीन-चार सप्ताह से देश के सभी लोग अपने घरों में सीमित व बन्द हैं। स्वाध्याय व साधना का उनको अवसर प्राप्त है। घर में बैठ कर ही वह अपने दूरभाष यन्त्रों सहित इण्टरनैट आदि साधनों से दूसरों से सम्पर्क कर अपने विचार व सिद्धान्तों का सीमित व कुछ अधिक प्रचार कर सकते हैं। मनुष्य का पहला धर्म अपने शरीर की रक्षा होता है। शरीर की रक्षा का अर्थ आदि-व्याधियों से रक्षा करने के साथ दुर्घटनाओं से बचाव करना होता है। शरीर निरोग व स्वस्थ होगा तभी कोई मनुष्य धर्म, कर्म व साधना आदि कर सकता है। अतः कोरोना नामी छूत की बीमारी से रक्षा सभी मनुष्यों का, कुछ अज्ञानी व पाप प्रवृत्तियों के मनुष्यों को छोड़कर, परम कर्तव्य है। ऐसा करने पर हम कुछ दिन या महीनों बाद पुनः अपना सामान्य जीवन व्यतीत करने में सफल हो  सकते हैं। आर्यसमाजों व सार्वजनिक स्थानों पर एकत्रित हो सकते हैं। समाजों, आर्य संस्थाओं तथा गुरुकुलों आदि के वार्षिकोत्सव, वेदपारायण यज्ञ, साप्ताहिक सत्संग आदि पूर्ववत् आरम्भ कर सकते हैं व उनमें सम्मिलित हो सकते हैं।

हम समझते हैं कि इस कोरोना रोग ने सभी मत-मतान्तरों के बहुत से दावों को असत्य सिद्ध कर दिया है। सभी मत-मतान्तरों में अशिक्षित व अज्ञानी लोगों की संख्या अधिक होती है। वह श्रद्धावान् होते हैं और अपने नेताओं व प्रतिनिधियों की सत्यासत्य बातों का बिना विचार किये स्वीकार कर लेते हैं। सब मतों के अपने अपने भगवान व ईश्वर हैं। कोई उसे भगवान, कोई गाड तथा कोई अल्लाह आदि के नामों से जानता है। कोरोना पर किसी भगवान व दैवीय शक्ति का जोर व नियंत्रण नहीं है। सभी कोरोना रोग के आगे विवश हैं और उन मतों के अनुयायियों की प्रार्थनाओं, पूजा, वन्दना, इबादत तथा प्रेयर आदि का भी कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। इससे यह सन्देश मिलता है कि इस समग्र सृष्टि का रचयिता एवं पालनकर्ता एक ईश्वर ही है जो सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा जीवों के कर्मों का फल प्रदाता है। ऐसा लगता है कि उस ईश्वर ने सारी मानव जाति को उसके मांसाहार व दुष्कर्म आदि पाप कर्मों की सजा दी है। वह चाहता है कि हम मनुष्य पाप व अधर्म का मार्ग छोड़कर मुख्यतः पशुवध व मांसाहार रूपी घोर अधर्म का त्याग कर दें। वेद द्वारा बताये सन्मार्ग पर चलें और ईश्वर के बनाये सभी मनुष्यों व पशु-पक्षियों के प्रति दया करने सहित न्याय भी करें। गोकरूणानिधि में ऋषि दयानन्द ने गो आदि हितकर प्राणियों की रक्षा के प्रकरण में ईश्वर को चुनौती दी थी कि तेरे होते हुए लोग इन प्राणियों की हत्या करते हैं। तू इन निर्दोष, मूक, असहाय, जनता के हितकारी प्राणियों की पुकार क्यों नहीं सुनता? इनकी हत्याओं को क्यों नहीं रोकता और अपराधियों वा पापियों को दण्ड क्यों नहीं देता? यह कहकर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की न्याय व्यवस्था को चुनौती दी थी। यहां तक कह दिया था कि क्या तेरी न्याय व्यवस्था बन्द हो गई जो लोग निर्भयतापूर्वक इन असहाय व मूक पशुओं की हत्या करते हैं। यदि ऐसा न होता तो सर्वशक्तिमान ईश्वर के होते हुए उसकी सन्तानें मनुष्य, पशु व पक्षी आदि प्राणी वर्तमान समय कि जिस पीड़ा व संकट की त्रासदी से गुजर रहे हैं, वह कदापि न होता।

आज पहले से कहीं अधिक प्रतिदिन निर्ममतापूर्णक मूक व असहाय प्राणियों की हत्यायें होती हैं। इसका कारण ईश्वर का प्रकोप भी हो सकता है। जो लोग ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते उनसे तो किसी सकारात्मक सोच विचार की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में सभी मतों व लोगों को परस्पर मिलकर विचार करना चाहिये कि कहीं यह कोरोना वायरस मूक प्राणियों की अकारण हत्या व मांसाहार से दुःखी ईश्वर का प्रकोप तो नहीं है? विश्व के सभी बुद्धिमान लोगों को एक ईश्वर, एक विधान, तर्कपूर्ण सर्वहितकारी मान्यताओं पर आधारित एक धर्म, एक विश्व भाषा के सिद्धान्त को प्रचलित करने पर भी संजीदगी एवं पक्षपात रहित होकर विचार करना चाहिये। यदि हम सब एक सत्य धर्म का निर्धारण कर उसे विश्व में प्रचलित कर करा सकें तो यह 21वीं शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि हो सकती है। यह काम किया जाना आज सबसे अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। बहुत से लोगों को यह प्रस्ताव व सुझाव हास्यास्पद लग सकता है, परन्तु हमारे ऋषि दयानन्द ने भी यही योजना अपने समय में विभिन्न मतों के आचार्यों के सम्मुख रखी थी जिसे पक्षपात, अज्ञान व स्वार्थ आदि कारणों से स्वीकार नहीं किया गया था। मनुष्य को जो ठीक लगता है उसे वह दूसरों के सामने प्रस्तुत कर सकता है और उसे करना भी चाहिये। ऐसे विचारों पर विद्वानों को गहन चिन्तन से अपना पक्ष प्रस्तुत करना चाहिये। विश्व की 7 अरब की जनसंख्या से किसी विषय पर सबको सहमत कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। तथापि सत्य को मानना व मनवाना सभी मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य है। सभी ऐसा करने का दृण निश्चय कर लें तो ऐसी कोई समस्या नहीं बचती जिसका हल व समाधान न किया जा सके।

आज कोरोना रोग वा वायरस के कारण सारा संसार त्राहिमान-त्राहिमान कर रहा है। अनेक देशों की अर्थ व्यवस्थायें ठप्प हो गई हैं। आने वाले अनेक वर्षों में उन्हें अपनी सामान्य स्थिति प्राप्त करने में कड़ी मेहनत करनी होगी। यह एक अच्छी बात है कि परमात्मा ने मनुष्य की मुख्य आवश्यकतायें बहुत कम रखी हैं। यदि किसी मनुष्य को दो समय का अल्प भोजन, शरीर ढकने के लिये वस्त्र, वायु व जल सहित निवास के लिये छत मिल जाये तो वह व्यक्ति अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। परमात्मा ने इतनी विशाल पृथिवी बनाई है जिसमें यह सब पदार्थ बहुतायत से सुलभ है। अतः आने वाला समय कितना भी कठिन क्यों न हो, इसका प्रभाव विलासी जीवन जीने वाले व्यक्तियों पर ही अधिक पड़ना है। पुरुषार्थी व धार्मिक व्यक्ति तो ऐसी किसी भी चुनौती को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं। वेद, वैदिक साहित्य तथा सत्यार्थप्रकाश आदि सद्ज्ञानयुक्त ग्रन्थ हमारा मार्गदर्शन करने के लिये हमें सुलभ हैं। हमें इन्हीं के बताये मार्ग का अनुसरण कर वर्तमान चुनौतियों पर विजय प्राप्त करनी है। सब सभी सज्जन व धार्मिक प्रवृत्तियों के निष्पाप मनुष्यों से प्रेम करें, उनसे सहयोग करें तथा उनकी ही रक्षा व उनके दुःखों को दूर करने के लिये तत्पर रहें। आज भी बहुत से आतंकवादी तथा अन्य कुछ संगठन भारत देश पर गीद्ध दृष्टि रखकर इसे हानि पहुंचाना चाहते हैं। हमें इनसे सावधान रहना है और इनसे व इनके प्रतिनिधियों सहित इनके हिमायतियों से भी दूरी बना कर रखनी है। उनका तिरस्कार व असहयोग ही उचित है। सज्जनों से प्रेम और दुर्जनों व इस प्रवृत्ति से द्वेष ही मनुष्यत्व है। आतंकवादी सोच मानवता की शत्रु है। इस मानसिकता से जुड़े लोगों ढूंढ कर कठोर दण्ड देना हमारी सरकारों व सम्बन्धित विभागों का काम है। इस कार्य को सम्पादित करने के लिये व्यवस्था परिवर्तन एवं दण्डि विधान को भी उपयुक्त बनाया जाना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य