जम्मू कश्मीर – परिसीमन के नाम पर हुए खेल की कहानी
भारत मे इतने सारे राज्य हैं, केंद्र शासित प्रदेश हैं। क्या आपके मन मे कभी आया कि किस हिसाब से किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेशों में विधानसभा और लोकसभा सीटें बनाई जाती हैं? ऐसा क्यों है कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे बड़े प्रदेशो में 4-5 लोकसभा सीटें ही हैं, जबकि दिल्ली जैसे छोटे केंद्र शासित प्रदेश में 7 सीटें हैं? ऐसे ही और भी कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे…….लेकिन आज का मुद्दा है जम्मू और कश्मीर
जम्मू और कश्मीर राज्य को तीन मुख्य भागो में बांटा गया है, कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख। लेकिन अगर आप सीटों के बंटवारे को देखेंगे, तो आप चौंक जाएंगे कि ये कैसा गड़बड़ झाला किया हुआ है अभी तक कि सरकारों ने।
चलिये थोड़ा इतिहास की तरफ चलते हैं।
जम्मू और कश्मीर राज्य का संविधान 1957 में लागू किया गया था। ये संविधान 1939 के महाराजा हरि सिंह द्वारा बनाये गए ‘जम्मू कश्मीर राज्य के संविधान 1939’ पर ही आधारित था। जब आजादी के बाद महाराजा हरिसिंह ने भारतीय गणराज्य में सम्मिलित होने का निर्णय किया था, उसके बाद इसी 1939 के संविधान के अंतर्गत ही जम्मू और कश्मीर को भारतीय गणराज्य में सम्मिलित किया गया था। लेकिन नेहरू जी के परम मित्र और अब्दुल्ला खानदान के पहले चिराग, शेख अब्दुल्ला ने एक खेल खेला और मनमाने तरीके से जम्मू को 30 सीटें दी, वहीं कश्मीर घाटी को 43 सीटें दी और सबसे बड़े इलाके लद्दाख को मात्र 2 सीटें मिली।
अब आप पूछेंगे कि ऐसा क्यों किया? बाप का राज था क्या? जी बिल्कुल, बाप का ही तो राज्य था……नेहरू हमेशा ही शेख अब्दुल्ला के करीबी रहे, और नेहरू ने अब्दुल्ला को हमेशा ‘फ्री हैंड’ दिया, जिसका लाभ शेख अब्दुल्ला ने उठाया।
अब आप सोचिये, जम्मू कश्मीर में कुल सीट हुई 43 (कश्मीर घाटी) + 30 (जम्मू) + 2 (लद्दाख) = 75
बहुमत की सरकार बनाने के लिए चाहिए 38 सीटें, तो जो पार्टी कश्मीर घाटी में 43 सीटें जीत जाएगी, वो हमेशा ही राज करेगी और किया भी। शेख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर पर एकछत्र राज किया। नेहरू ने उन्हें जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री भी बनाया। जी हाँ, 1953 तक जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था, नेहरू जी की प्यार की पॉलिटिक्स थी भई .
आपको ये जानकर झटका भी लग सकता है, कि वो नेहरू ही थे जिन्होंने अब्दुल्ला को पाकिस्तान भेजा था, शांति की बात करने के लिए, भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ बनने के लिए। बीच बीच मे नेहरू-गांधी परिवार के अब्दुल्ला से संबंध बिगड़ भी गए, और अब्दुल्ला को जेल में भी डाला गया, लेकिन फिर 1974 में इंदिरा गांधी और अब्दुल्ला के बीच समझौता हुआ, और अब्दुल्ला को फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया, फिर उनके बेटे फारूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने और फिर अब्दुल्ला और मुफ़्ती के बीच कश्मीर के सिंहासन की बंदरबांट चलती रही।
मुद्दे पर वापस आते हैं, 2011 के जनगणना के अनुसार जम्मू डिवीज़न की जनसंख्या 53,78,538 है और जम्मू पूरे राज्य का 25.93% भाग है और पूरे राज्य की 42.89% जनसंख्या जम्मू डिवीज़न में रहती है।
कश्मीर डिवीज़न की जनसंख्या है 68,88,475, जिसमे 96.40% मुस्लिम आबादी है। कश्मीर डिवीज़न पूरे राज्य का मात्र 15.73% भाग है, वहीं इसमे जनसंख्या है 54.93%।
वहीं लद्दाख डिवीज़न पूरे राज्य का 58.33% इलाका है, और जनसंख्या के हिसाब से लद्दाख में पूरे राज्य की 2.18% जनसंख्या रहती है।
अभी कब आंकड़ों के हिसाब से, कश्मीर डिवीज़न को 46 सीट्स मिली हुई हैं, जम्मू को 37 और लद्दाख को मात्र 4।
अब आप स्वयं सोचिये, कोई भी पोलिटिकल पार्टी अगर कश्मीर डिवीज़न (कश्मीर घाटी) में सभी सीटें जीत ले, तो वो पूरे राज्य पर शासन करती रहेगी, आज़ादी के बाद यही गलत परिसीमन ही तो सबसे बड़ा कारण है कि कश्मीर घाटी के 2 परिवार ही हमेशा पूरे राज्य पर एकछत्र राज करते आये हैं। कांग्रेस (जो स्वयं एक परिवार की प्राइवेट पार्टी है) ने हमेशा इन्ही दोनों परिवारों से मिलजुलकर सरकारें बनाई हैं।
आखिरी परिसीमन हुआ था 1995 में, जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था। उस समय परिस्थितियां बड़ी ही विकट थी। जस्टिस केके गुप्ता की अध्यक्षता में ये कार्य सम्पन्न हुआ। भारतीय संविधान के अनुसार, हर 10 साल में परिसीमन किया जाना चाहिए, और 1995 के बाद ये 2005 में होना चाहिए था।
लेकिन 2005 से पहले पता है क्या हुआ?
2002 में फारूख अब्दुल्ला सरकार ने परिसीमन को 2026 तक के लिए जाम कर दिया। अब्दुल्ला सरकार ने जम्मू कश्मीर रिप्रिजेंटेशन ऑफ प्यूपल एक्ट और जम्मू कश्मीर के संविधान की धारा 47(3) को बदल दिया, और ये जोड़ दिया कि ”जब तक 2026 के जनसंख्या के आंकड़े नही आएंगे, तब तक जम्मू और कश्मीर में विधानसभा सीट्स की संख्या और उनके परिसीमन के बारे में कोई कदम नही उठाया जाएगा।
और अगली जनगणना होगी 2021 में, और उसके बाद अगली होगी 2031 में…….तो एक तरह से फारूख अब्दुल्ला सरकार ने 2031 तक परिसीमन को असंभव सा ही बना दिया था। तब तक उनका पोता या पोती मुख्यमंत्री बनने लायक हो ही जायेगा।
अच्छा एक और किस्सा सुनिए, आपने अ.जा.-ज.जा. के लिए आरक्षित सीटों का तो सुना ही होगा। हर राज्य में इस तरह की सीटें होती हैं, जहां से पिछड़े वर्ग के लोग चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन जम्मू और कश्मीर में इस मामले में भी एक झोल है।
जम्मू कश्मीर में कुल 7 सीटें हैं जो अ.जा.-ज.जा. के लिए आरक्षित हैं, और ये सभी सीटें जम्मू डिवीज़न में हैं। कश्मीर घाटी में एक भी नही है।
जबकि 1991 में गुज्जर, बकरवाल और गद्दी जाति जनजाति के लोगों को जम्मू कश्मीर राज्य में अ.जा.-ज.जा. का दर्जा मिला था, लेकिन लगभग 28 सालो में कश्मीर घाटी में इन लोगों के लिए एक भी सीट रिज़र्व नहीं हुई, जबकि ये लोग कश्मीर घाटी और आस पास के इलाकों में पाए जाते हैं। अब क्यों नही मिले इसका कारण जानना आसान है।
ये अल्पसंख्यक अधिकार, अ.जा.-ज.जा. अधिकार जैसे चोंचले कश्मीर घाटी में नही चलते साहब, वहाँ तो निजाम-ऐ-मुस्तफा चला रहा है पिछले 30 सालों से .
अब मोदी सरकार 2.0 ने राज्यपाल को ये अधिकार दे दिया है कि वे परिसीमन की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं। अगर ये कार्य सही तरीके से होता है, तो यकीन मानिए, जम्मू और कश्मीर की राजनीति हमेशा के लिए बदल जाएगी। ये 2 परिवार हमेशा के लिए ध्वस्त हो जाएंगे, और कश्मीर घाटी का ब्लैकमेल भी खत्म हो जाएगा।
साभार – श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी