सहानुभूति
तीसरी बार दरवाजे से वापस ड्राईंग रुम की ओर मुड़े अनिकेत के कदम। झुँझलाया हुआ अनिकेत सोफे पर पसर गया और बेबस आँखें दीवार पर टँगी टेलिविजन की ओर उठ गईं।
समाचार वाचिका के बोल उसके कानों पर तीर से चुभ रहे थे जो लगातार बता रही थी कि भयानक संक्रामक महामारी कोरोना का कहर संपूर्ण विश्व पर बरप रहा है। लगातार मृतकों की संख्या में इजाफा हो रहा था। वृद्ध दर सामान्य नहीं बल्कि घातांकीय वृद्धि हो रही थी। राहत की बात यह थी कि भारत में अभी भी संक्रमण दर बहुत तीव्र नहीं हुआ था। परंतु निकट भविष्य की भयावह स्थिति की कल्पना मात्र से अनिकेत की देह सिहर उठी।
‘शाम के लिए सब्जी नहीं बची है’ तभी पत्नी की आवाज आई।
‘क्या करूँ?! बाहर जाने में भी खतरा है।’ चौथी बार दरवाजे पहुँच कर अनिकेत ने जवाब दिया और शून्य नजरों से आकाश की ओर ताकने लगा। जहाँ कलरव करते विहंग स्वच्छ आकाश में विचरण कर रहे थे और वह बेबस, असहाय कमरे में पिंजरे की तरह बंद हो गया था। आज कोरोना के भय से लाॅकडाऊन का दसवाँ दिन था। संसार की गति थम सी गई थी। संक्रमण की आशंका ने पहिये में ब्रेक लगा दिया था।
‘उफ्फ!…..कितना भयानक और तकलीफदेह है इस तरह कैद होना’ उसने मन ही मन सोचा।
तभी पुनः उसका शरीर झनझना गया। उसे याद आया पिंजरे में बंद तोता। हाॅल के एक कोने में रखे पिंजरे की ओर उसने देखा जिसमें मिट्ठू बंद बैठा हुआ था। अनिकेत ने पुनः आकाश में विचरते पक्षियों को देखा और फिर दृष्टि पिंजरे पर टिका दी। उसे स्वयं की स्थिति और मिट्ठू में कोई अंतर नहीं लगा। उसके मन में मिट्ठू के लिए सहानुभूति उत्पन्न हुई।
सहसा इस कठिन समय में भी उसके चेहरे पर एक हल्की स्मित की रेखा उभरी मानो वह कोई निर्णय कर चुका है। चेहरे में दृढ़ता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। अनिकेत के कदम वापस मुड़े पर इस बार सोफे की ओर नहीं बल्कि वह पिंजरे की ओर बढ़ गया। पिंजरे को हाथ में उठाए वह दरवाजे तक आया। एक बार प्यार भरी नजरों से मिट्ठू को देखने के बाद उसने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। मिट्ठू बाहर तीर सा निकला; थोड़ी देर गेट पर बैठने के पश्चात अनंत आकाश में उड़ गया। अनिकेत उसे ओझल होने तक देखता रहा। संतुष्टि के भाव के साथ उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गई।
अनंत पुरोहित अनंत