मुक्त काव्य
“मुक्त काव्य”
पेड़ आम का शाहीन बाग में खड़ा हूँ
फलूँगा इसी उम्मीद में तो बढ़ा हूँ
जहाँ बौर आना चाहिए
फल लटकना चाहिए
वहाँ गिर रही हैं पत्तियाँ
बढ़ रही है विपत्तियां
शायद पतझड़ आ गया
अचानक बसंत कुम्हिला गया
फिर से जलना होगा गर्मियों में
और भीगना होगा बरसातियों में
फलदार होकर भी जीवन से कुढ़ा हूँ
पेड़ आम का शाहीन बाग में खड़ा हूँ।।
डालियों पर दीमक खेल रहें हैं
लोग मुझपर जहर ढकेल रहें हैं
चिमनी का धुआँ मंडरा रहा है
मेरी महुआ का जी मिचला रहा है
हकीम नाड़ी दबा रहे हैं
अंकुरण को दवा पिला रहे हैं
नई प्रजाति का रोपड़ हुआ है
वन बाग का अजीब पोषण हुआ है
लगाने वाले अपनी गरिमा लगा गए
काटने वाले आरा चला गए
प्रति पल थपेड़ों से लड़ा हूँ
पेड़ आम का शाहीन बाग में खड़ा हूँ।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी