कविता

मेरे शरारती बच्चे

मेरे ये दो बच्चे
घर मे आफत पर मन के सच्चे
पल-पल में लड़ते-झगड़ते
पल-पल में मिलते
सारा दिन घर मे कोहराम मचाते
कभी ऊपर कभी नीचे जाते
शरारतों से इन दोनो की
मेरा रक्तचाप है बढ़ जाता
मेरे ये दो बच्चें
घर में आफत पर मन के सच्चे
काम की कहते ही पल में कर जाते
पढ़ने की कहते ही कद्दू सा मुँह बनाते
टीवी ,मोबाइल बंद करते ही
घर में ये हुड़दंग मचाते
इनकी हुड़दंग से मेरा सर है दुख जाता
मेरे ये दो बच्चें
घर में आफत पर मन के सच्चे
दाल -बाटी एक खावे
दूजा खीर-पूड़ी बनवाये
एक को समोसा भाता
दूजा केक बनवाता
इन दोनों की फरमाइशों में
मेरा बैगन का भरता बन जाता
मेरे ये दो बच्चें
घर में आफत पर मन के सच्चे
पीहर जब में जाती हूँ
दो से छः हो जाते
पीहर मैदान-ए-जंग बन जाता
इनकी हरकतों से फिर
हम तीन माओं का सुख चैन छीन जाता
बच्चे हमारे छ: बच्चें
घर में आफत पर मन के सच्चे

— गरिमा राकेश गौतम

गरिमा राकेश गौतम

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