पीपल की बरगद से चाहकर बात नही होती
पनपे कंकरीट के जंगल, बड़े मंझोले पेड़ काटकर,
पीपल की बरगद से चाहकर बात नही होती ।
सावन की पुरवैय्या सूनी ।
दादी की अंगनैय्या सूनी ।
सरिता का संगीत शोकमय,
बंधी घाट पर नैय्या सूनी ।
महुए की सुगंध से महकी रात नही होती ।
पीपल की बरगद………………………..
कहीं खो गये कोयल ,खंजन।
दूर हो गये झूले सावन ।
उजड़ रहे वन बाग नित्यप्रति,
उजड़े धरती माँ का आँगन ।
अब कतारमय क्रौंचो की बारात नही होती।
पीपल की बरगद…………………….
फीकी बारिश की बौछारें ।
धूमिल रंग धरा के सारे ।
अब मानव कृत्रिम में खुश है,
प्राकृतिक से किये किनारे ।
मलयज वायु सुरभित सुंदर प्रात नही होती ।
पीपल की बरगद से …………………..
© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी २७/७/२०२० गोरखपुर