आत्महत्या (रोकथाम ?) में फिल्मों की भूमिका
आज से पहले मैने ना इस दिवस के बारे में सुना था, ना ही पढा था, किंतु जब अखबार में इस दिवस के बारे में पढा तो कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य हो गयी। कई सारी घटनाएं याद आने लगी, खास कर कई फिल्मी हस्तियों( दिव्या भारती, जिया खान, इंदर कुमार, कुशल पंजाबी जैसे कई नाम इसमें शामिल हैं) का नाम और कई सारी फिल्में(चौदवी का चांद, एक दूजे के लिये, मोहब्ब्तें, सिंघम, हम दिल दे चुके सनम, छिछोरे, मसान जैसी सफल फिल्में) जिनमें किरदार जीवन की किसी समस्या को कारण बनाकर आत्महत्या कर लेते हैं, आश्चर्य की बात तो यह लगती है कि फिल्मों का इस तरह फिल्मांकन किया जाता है कि दर्शकों को भी लगता है कि यही एक मात्र समस्या का हल था, अभिनेता या अभिनेत्री का फिल्म में ऐसा करना दुखद तो लगता है मगर गलत नही लगता। दर्शक उसके माता पिता, या आस पास के दिखाये समाज या खलनायक या परिस्थितियों को पूरी तरह से दोष देता हुआ, उस किरदार को पूरी तरह न्यायसंगत ठहराता हुआ सहानुभूति देता हुआ कहता है- बेचारा और करता ही क्या? या फिर इसे कहते है कि प्यार के लिये उसने जान दे दी। कुछ इस तरह हमारी फिल्में सच्चे प्यार की परिभाषा हर काल में गढती रहीं हैं। जिसका परिणाम ये होता है कि एक सामान्य व्यक्ति भी अपने प्रेमी या प्रेमिका से पूंछ उठता है कि क्या वो उसके लिये प्यार में जान दे सकता है? फिल्म वीरजारा में जब जारा( प्रीती जिंटा) अपनी मां (किरण खेर) से पूछंती है कि क्या अब्बा जी आपके लिये अपनी जान दे सकते हैं और वो एक मिनट को चुप होकर बात का कुछ घुमा कर जवाब देती हैं, तब जारा कहती है कि वो एक ऐसे शख्स को जानती है जो उसके लिये जान दे सकता है। फिल्म में कुछ ना दिखाते हुये भी दर्शकों तक स्वतः ही यह संदेश पहुंचता है कि जारा के पिता (जहांगीर हयात खान) को उसकी मां से सच्ची मोहब्बत नही, और जारा के लिये वीर एक सच्चा प्रेमी है। सुनने और देखने में यह बहुत अच्छा लगता है। यह दॄश्य एक तरफ जहांगीर हयात की छवि को प्रेम के दुश्मन के रूप मे गढता है वही उसकी मां(मरियम हयात) को एक मजबूर पत्नी के रूप में दिखाया जाता हैं, और फिल्म के नायक वीर की छवि और मजबूती से उभरती है।
किंतु अगर हकीकत की पृष्ठभूमि में देखे तो क्या सच्चे प्रेम के लिये, मर जाने का दृढ निश्चय ही दो लोगों के मध्य पनपे प्रेम को सच्चे प्रेम की मुहर दे सकता है।
इसी तरह सन २००० में एक फिल्म आई थी, मोहब्बतें जिसमें मेघा (ऐश्वर्या राय बच्चन) इसलिये आत्महत्या कर लेती हैं क्योकि वह ना तो अपने पिता नारायन शास्त्री(अमिताभ बच्चन) को दुखी देख सकती है और ना ही अपने प्रेमी राज आर्यन(शाहरुख खान) के बिना रह सकती है। ऐसा लगता है कि जब भी कोई पिता बच्चों के प्रेम के खिलाफ हो तो मेघा की तरह ही निर्णय करना चाहिये, यही एकमात्र रास्ता है अपने पिता को खुशी और प्रेमी के साथ मरने के बाद हमेशा के लिये रहने का। फिल्म के कई दॄश्यों में मेघा की रूह राज के पास आती भी है। राज बाकी की जिंदगी मेघा को अपने पास महसूस करते हुये गुजारता है और उसे अपने जीवन में किसी की जरूरत भी नही होती, क्योंकि नायक का प्रेम तभी सच्चा सिद्ध हो सकता है। नारायन शास्त्री की छवि खलनायक के बहुत करीब नजर आती है।
ऐसी एक नही कई फिल्में हैं जिनमें किरदार आत्महत्या करते हैं, और वह आत्महत्या फिल्म में किसी न किसी तरह न्याय पूर्ण दिखाई जाती है। जैसे १९६० में आई फिल्म चौदहवी का चांद (फिल्म इतिहास में एक मील का पत्थर) में नवाब साहब (रहमान) फिल्म के अंत में हीरा खा कर फिल्म का त्रिकोण खत्म करते हैं, और अभी हाल में ही आई फिल्म छिछोरे जिसमें ऐनी का बेटा इसलिये आत्महत्या करने की कोशिश करता है क्योकिं उसका पिता एक सफल आई. आई. टियन है और वह स्वयं उसके इंट्रेंस एक्साम में नाकामयाब हो जाता है।
मसान में एक किरदार समाज के डर से आत्महत्या कर लेता है तो सिंघम में पुलिस इंस्पेकटर अपने ऊपर लगे गलत आरोपों के दबाव में आ कर आत्महत्या कर लेता है। हम दिल दे चुके सनम में नायिका नायक (सलमान खान) से ना मिल पाने के कारण आत्महत्या की कोशिश करते हुये पर्दे पर अपने प्रेम की गहराई को प्रमाणित करती है, तो कयामत से कयामत तक में राज (आमिर खान) आत्महत्या इसलिये कर लेता है क्योकिं रश्मि (जूही चावला) के जीवित ना रहने पर इक सच्चे प्रेमी का यह फर्ज है कि प्रेम को सच्चा प्रमाणित करने के लिये वह भी तुरंत अपने जीवन का त्याग कर दे। फिल्म एक दूजे के लिये तो इससे कहीं आगे निकलती दिखती है जिसमें नायक मृत्यु के करीब होने की स्थिति में नायिका को लेकर समुद्र में कूदते हुये हमेशा के लिये दूसरी दुनिया में एक दूजे के हो जाने को इंगित करता है, और फिल्म के टाइटल एक दूजे के लिये को सही प्रमाणित करता है।
सवाल उठता है कि क्या समाज में एक सामान्य व्यक्ति को अपने प्रेम को सच्चा सिद्ध करने के लिये ऐसे ही आदर्श देने चाहिये?
क्या परीक्षा में असफल होने पर बच्चों को आत्महत्या करने जैसे गलत कदम उठाते हुये अपने मानसिक दबाव का प्रदर्शन करना चाहिये?
क्या आत्महत्या को कठिन परिस्थितियों का हल मानना चाहिये?
क्या सामाजिक भय से छुटकारा पाने के लिये आत्महत्या करना उचित मान लेना चाहिये?
क्या गरीबी या बेरोजगारी की परिस्थिति के लिये समाज को जिम्मेदार ठहरा कर आत्महत्या का विकल्प तलाश लेना चाहिये?
अगर उपरोक्त सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं है तो हमारी फिल्में अपनी कहानी में आत्महत्या जैसी कायराना गतिविधि को अपनी फिल्मों में स्थान क्यों देती हैं? क्यों ऐसे चरित्रों का चित्राकंन फिल्म के मुख्य नायक नायिकायें करती है? हर देश काल में हर समाज फिल्मों से, नायक, नायिकाओं से ना केवल आकर्षित होता है बल्कि कई बार अपना आदर्श भी बना लेता है।
क्या हमारे फिल्म निर्माता, निर्देशक, कहानीकार, नायक, नायिकाये बाकई इस पहलू से अनभिज्ञ हैं कि पर्दे पर निभाये गये चरित्रों का जन मानस और खास कर युवा वर्ग पर क्या प्रभाव पडता है या उनके लिये व्यापार ही महत्वपूर्ण है, फिर चाहे वह किसी भी कीमत पर हो। जो समाज उनको धन, शोहरत, सुविधायें देता है, उस समाज में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नकारात्मक संदेश को प्रसारित करना वैसा ही हो सकता है जैसे थाली में छेद करना।
हमारे मीडिया, हमारे फिल्मकारों, हमारी सरकार, सेंसर बोर्ड और इन सबसे बढकर स्वयं समाज को अपने अपने स्तर पर जिम्मेदारी लेनी चाहिये। हमें ऐसे किरदारों को नायक नही, एक हारे हुये व्यक्ति की तरह देखना चाहिये। यदि हम अपने बच्चों को ऐसी फिल्में दिखाते हैं, तो हम बडो का ऐसे चरित्रों पर चर्चा करनी चाहिये और यह संदेश देना चाहिये कि उस किरदार को ऐसा नही करना चाहिये था, उस परिस्थिति में वह जीवित रह कर परिस्थितियों से संघर्ष करने और उन पर जीत पाने का संदेश भी दे सकता था। जिस तरह से आज युवा वर्ग में आत्महत्या करने की पॄवत्ति पनप रही है, हमारे सेंसर बोर्ड को भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता आज के समय में प्रासंगिक हो जाती है कि आत्महत्या जैसे कार्यों को यदि फिल्म में दर्शाया जाय तो उसके किरदार को नायक नही, एक कमजोर एक हारे हुये व्यक्ति के रूप में दिखाये। वो यह दिखाये कि वह किरदार जीने की कोशिश कर सकता था, वह यह दिखाये कि उसके बाद उसकी समस्यायें हल नही होती वरन उसका सामना उसके परिवार वालों को करना पडता है, वो यह दिखाये कि नायक या नायिका के आत्महत्या करने के बाद नायक/ नायिका उसकी याद में पूरा जीवन नही जीते, उनका जीवन कुछ समय के बाद सामान्य भी होता है, उनके जीवन को गति भी मिलती है और उनका बिछडा साथी मात्र एक याद बन कर कर जाता है। शायद फिल्मों में दिखाया गया यथार्थ हमारे युवाओं को कुछ राह दिखा सकें, जीवन को कठिन परिस्थितियों में भी जीने की प्रेरणा दे सके और सच्चे प्रेम की परिभाषा मरने नही जीने में है यह स्थापित कर सके।
ऐसे में याद आती है सन १९७१ में आई राजेश खन्ना द्वारा अभिनीत फिल्म आनंद, जिसमें नायक आनंद सहगल यह जानते हुये भी कि उसे एक ऐसी बीमारी है जिसके कारण वह छः महीने से ज्यादा नही जी पायगा फिर भी वह पूरी जिंदाजिली से कहता है – बाबू मोशाय जब तक जिंदा हूं, मरा नही। आज समाज को ह्रिकेश मुखर्जी जैसे महान डायरेक्टर की बहुत आवश्यकता है जो समाज को सकारात्मक संदेश दे सकें, ऐसी फिल्में दे सके जिनसे एक हारा हुआ व्यक्ति भी प्रेरणा ले सके, पुनः जीने की उर्जा दे सके।