लघुकथा

घर एक मंदिर है

टि्रन-टि्रन….. फोन की घंटी बजती है।

‘हैलो…अरे! बहुत देर से फोन कर रही थी। कहां थी? कैसी है? काफी दिनों से फोन नहीं आया? क्या कारण है?” सीमा लगातार बोलती जा रही थी..

“झाड़ू लगा रही थी।” रीमा ठंडी सांस भरते हुए…

“बाई नहीं लगाई? भ‌ई देखो! हमने तो लगा ली हमसे तो यह सब होता नहीं है। फिर बात यह भी है कि लोग हमारे स्टेटस के बारे में क्या सोचेंगे?”

“मतलब! तुम कहना चाहती हो कि स्टेटस अपने लोगों की जान से बड़ा है और हमारा नहीं है?”

“नहीं रे! मेरा यह मतलब कदापि नहीं है। समय भी नहीं बचता, मम्मी जी मंदिर की कार्यकारिणी की सदस्या जो ठहरीं। वहां की साफ-सफाई तो हम ही करते हैं और अब तो वैसे भी सफाई का ज्यादा ध्यान रखना पड़ता है।”

“बस! यही तो बात है जो मैंने अभी तक बाई नहीं लगाई।अब सफाई का ज्यादा ध्यान रखना है क्योंकि यह घर ही ‘हमारा मंदिर है’ और हम सब इसके पुजारी, फिर किसी और से इसकी सफाई क्यों? खुद क्यों नहीं?”

दूसरी तरफ से आवाज़ आनी बंद हो जाती है और रीमा खुशी-खुशी फिर अपने मंदिर को सजाने में लग जाती है।

— नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक